Loading election data...

थारू जनजाति की राजनीतिक भागीदारी को नए परिसीमन की आस, 3 लाख की आबादी के बाद भी नहीं चुन सकते सांसद-विधायक

नेपाल सीमा से सटे सुदूरवर्ती इलाके में बसने वाली थारू जनजाति की राजनीतिक भागीदारी आज भी न के बराबर है.

By Anand Shekhar | April 27, 2024 7:33 PM

बेतिया से गणेश व हरनाटांड से जयप्रकाश वर्मा

8 जनवरी, 2003 का वह दिन था, जब अटल वाजपेयी की अगुवाई वाली सरकार ने थारूओं का जनजाति का दर्जा दिया. इसके साथ ही देश के सुदूरवर्ती इलाके में बसने वाले थारू समाज के विकास की रफ्तार बढ़ गई. थारू जनजाति के लोग आरक्षण के बूते न सिर्फ सरकारी नौकरियों में पहुंच गये, बल्कि पंचायतों की राजनीति में भी सक्रिय हो गये. शिक्षा, खेल, संस्कृति हर क्षेत्र में थारू की भागीदारी दिखने लगी.

पंचायतों तक सिमटी थारु की राजनीति

हालांकि इनकी राजनीतिक भागीदारी पंचायतों तक ही सिमट कर रह गई, जबकि इनकी आबादी पश्चिम चंपारण जिले के तीन विधानसभाओं यानी वाल्मीकिनगर, रामनगर और सिकटा विस में करीब तीन लाख है. इसमें से करीब 1.60 लाख थारू मतदाता है. बावजूद इसके इस समुदाय का नेता न तो प्रमुख दलों के प्रत्याशियों की सूची में स्थान बना पाता है और न ही खुद के बलबूते अपने समाज के नेता को पटना व दिल्ली तक पहुंचा पाता है.

दो फीसदी आबादी के बाद भी विधानसभा-लोकसभा में सीट रिजर्व नहीं

हालांकि पश्चिम चंपारण के जिला परिषद अध्यक्ष की सीट एसटी के लिए रिजर्व है, जहां पहले थारू समाज के शैलेंद्र गढ़वाल और वर्तमान में निर्भय महतो अध्यक्ष है. हालांकि थारू अपनी राजनीतिक भागीदारी विधानसभा और लोकसभा के लिए भी चाहते हैं. थारू समाज के नेताओं का कहना है कि दो फीसदी आबादी होने के बाद भी हमारे लिए विधानसभा या लोकसभा का कोई सीट रिजर्व नहीं है. फिलहाल उन्हें राजनीतिक भागीदारी के लिए नये परिसीमन की आस है.

प्रेम नारायण गढ़वाल के बाद थारू समाज से नहीं बना कोई MLC

हरनाटांड निवासी डॉ शारदा प्रसाद बताते हैं कि थारू समाज के प्रेम नारायण गढ़वाल 1972 से 1990 तक बिहार विधान परिषद के सदस्य रहे और बिहार सरकार के मंत्री भी बने. उनके बाद से थारू समाज से किसी को एमएलसी नहीं बनाया गया. डॉ प्रसाद कहते हैं कि थारू जनजाति के विकास के लिए गठित थरूहट विकास अभिकरण को हर साल करीब 27 करोड़ मिलते हैं, लेकिन यह पैसा जनजातियों के विकास पर खर्च नहीं होता है. ऊंट के मुंह में जीरा के जैसे इसका लाभ हमें मिलता है.

थरूहट अभी विकास में बहुत पीछे

भारतीय थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष दीप नारायण प्रसाद कहते हैं कि थरूहट अभी विकास में बहुत पीछे हैं. यहां हरनाटांड में कोई कॉलेज नहीं हैं. मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद भी बगहा प्रखंड का स्थानांतरण अभी तक सिंधाव में नहीं किया गया. श्री प्रसाद का कहना है कि बगहा यदि राजस्व जिला बनता है तो थरूहट के विकास की रफ्तार जोर पकड़ सकती है. वें बताते हैं कि 2006 में वनाधिकार नियम बना और 2012 में संशोधन भी हुआ, लेकिन हमें उसकी कोई सुविधा नहीं मिली. आज भी हम जमीन के पट्टा के लिए दौड़ लगा रहे हैं.

थारू संस्कृति के बचाव को नहीं हो रही पहल

थारू समाज के गुमस्ता हरिहर काजी कहते हैं कि यह इलाका कृषि प्रधान क्षेत्र है, लेकिन सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं हैं. थारू संस्कृति के बचाव को लेकर भी कोई पहल नहीं हो रहा है. युवाओं के लिए क्रीड़ा स्थल नहीं बना है.
रामेश्वर काजी कहते हैं कि हमारे वोट से चुने गये विधायक व सांसद हमारे मुद्दों को सदन में कभी नहीं उठाते हैं. यदि परिसीमन होती है तो हमारी राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ेगी.

एक भी डिग्री कॉलेज नहीं

संजय ओझाइयां कहते हैं कि थरूहट की राजधानी हरनाटांड है, लेकिन यहां डिग्री कालेज नहीं हैं. थरूहट कला संस्कृति का भवन तक नहीं है. थारू युवा खेलकूद में आगे रहते हैं, लेकिन यहां स्टेडियम नहीं हैं.

Also Read : झंझारपुर में करोड़पति उम्मीदवारों के बीच सत्ता संग्राम, जानिए किसके पास कितनी संपत्ति

Exit mobile version