Gandhi Jayanti: 16 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी ने मोतिहारी से फूंका था सत्याग्रह का बिगुल

Gandhi Jayanti: महात्मा गांधी चंपारण में 15 अप्रैल 1971 को आये थे. वो नील कोठी वाले अंग्रेजों द्वारा किसानों व मजदूरों पर किये जा रहे अत्याचार को देखने समझने के लिए आये थे, लेकिन तत्कालीन डीएम ने उन्हें तुरंत जिला छोड़ने का आदेश दिया. गांधी जी ने अपनी आत्मा की आवाज पर सरकारी आदेश की अवहेलना की.

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 2, 2022 4:46 PM

Gandhi Jayanti: महात्मा गांधी चंपारण में 15 अप्रैल 1971 को आये थे. वो नील कोठी वाले अंग्रेजों द्वारा किसानों व मजदूरों पर किये जा रहे अत्याचार को देखने समझने के लिए आये थे, लेकिन तत्कालीन डीएम ने उन्हें तुरंत जिला छोड़ने का आदेश दिया. गांधी जी ने अपनी आत्मा की आवाज पर सरकारी आदेश की अवहेलना की, जो सत्याग्रह का भारत में पहला प्रयोग था और प्रशासन ने उन पर किया गया मुकदमा वापस ले लिया. तत्कालीन एसडीओ की अदालत में जाकर गांधीजी ने अपना बयान दिया था और आदेश न मानने का कारण बताया था. उसी स्थान पर सत्याग्रह स्मारक स्तंभ का निर्माण किया गया है. इस 48 फीट लंबे स्मारक स्तंभ की आधारशिला 10 जून 1972 को तत्कालीन राज्यपाल देवकांत वरूआ ने रखी थी और गांधीवादी विधाकर कवि ने 18 अप्रैल 1978 को इसे देश को समर्पित किया. इस स्मारक स्तंभ का डिजाइन प्रसिद्ध वास्तुविद नंदलाल बोस ने किया था. ये सत्याग्रह स्मारक स्तंभ देश में स्वत्रंता आंदोलन की पहली जीत का स्मरण दिलाता है. वर्तमान में इस परिसर में एक गांधी संग्रहालय का भी निर्माण कराया गया है.

दो हजार लोगों ने अदालत में बापू के साथ दिया था बयान

16 अप्रैल को किसानों का दुख सुनने जसौली-पट्टी जाने के क्रम में चंद्रहिया के समीप एक अंग्रेज दारोगा नोटिस लेकर गांधीजी के पास पहुंचा. उसमें अविलंब चंपारण छोड़ने का फरमान जारी किया गया था, पर, उन्होंने चंपारण नहीं छोड़ा और शासनादेश की अवज्ञा कर मोतिहारी आ गये. अगले दिन निषेधाज्ञा तोड़ने के उल्लंघन में तत्कालीन एसडीओ जार्ज चंदर की अदालत में 18 अप्रैल को हाजिर होने का आदेश मिला. करीब दो हजार लोगों के साथ बापू ने 18 अप्रैल को न्यायालय में हाजिर होकर ऐतिहासिक बयान दर्ज कराया था.

किसानों से 40 प्रकार का टैक्स वसूलते थे अंग्रेज

चंपारण के किसानों पर अंग्रेज कई तरह से जुल्म करते थे. करीब 40 प्रकार के टैक्स वसूल कर उनका लहू चूस लेते थे. प्रति एक बीघा जमीन पर तीन कट्ठा जमीन में नील की खेती करनी पड़ती थी. अतीत का वह काला अध्याय आज भी चंपारण वासियों के जेहन में है.

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