गया के इमामगंज प्रखंड से पांच किलोमीटर दूर छोटकी परसिया गांव के स्वतंत्रता सेनानी रामकृष्ण प्रसाद ने छात्र जीवन से ही स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया था. उनके पिता स्व समाजित महतो व भाई फौदारी प्रसाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने की बात किया करते थे. लेकिन, उन पर इसका असर नहीं पड़ा.
घर की माली हालत ठीक नहीं रहने व सामाजिक कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने सिलाई का कार्य प्रारंभ किया और जो भी दो-चार पैसों का जुगाड़ होता गरीब-लाचारों पर खर्च देते थे. उनके कंधा से कंधा मिला कर चलने वाले स्वतंत्रता सेनानी बालगोविंद प्रसाद (मनन बिगहा), सुवा सिंह (कनौदा) आदि का सहयोग इनको हमेशा मिलता रहा.
ग्रामीणों को जागृत करने के लिए गांव-गांव में सांस्कृतिक कार्यक्रम कर आंदोलन और तेज करने में जुट गये. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय इन पर मुकदमा चलाया गया. इस दौरान ये अंग्रेज सिपाहियों से बचने के लिए जंगल में रहा करते थे. इनके भाई पैदल गया जाकर कोर्ट में हाजिर होते थे. लेकिन, स्वतंत्रता सेनानी के अनुपस्थित होने के कारण उनके घर की कुर्की का आदेश हो गया और सारा सामान अंग्रेज सिपाही लेते चले गये.
अंग्रेज सिपाहियों ने पालतू जानवरों को परसिया गांव में ही गढ़ पर बांध दिया था. आखिरकार इन्हें गिरफ्तार कर सेंट्रल जेल गया में डाल दिया गया. ये यहां 16 माह तक रहे. 1943 वर्ष में जब जेल से रिहा हुए, तो इनका शरीर पिला हो गया था. कुछ दिनों तक घर में आराम करने के बाद फिर से क्रांतिकारी कार्यों में जुड गये. जिला स्तरीय कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू कर दिया. जब 15 अगस्त 1947 वर्ष में भारत आजाद हुआ, तो अपने सहयोगियों के साथ (गांधी मैदान इमामगंज) में तिरंगा झंडा फहराया.
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देश की आजादी के बाद भी परसिया विद्यालय में पढ़ाते रहे. गरीब छात्र-छात्राओं को जीवन पर्यंत पढ़ाई में सहयोग करते रहे. इसी कारण इन्हें गांव वाले गुरुजी के नाम से पुकारा करते थे. स्व प्रसाद की जीवनी उनकी दैनिक डायरी में भी, जिसे आज भी उनके पौत्र शिक्षक संतन कुमार ने संभाल कर रखा है. स्व प्रसाद को इंदिरा गांधी द्वारा स्वतंत्रता दिवस की 25वीं वर्षगांठ पर ताम्रपत्र भेंट किया गया था.