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बोधगया में चरवाहा स्कूल के भवन में चल रहा विशेष स्कूल, यहां भीख मांगने वाले बच्चे सीखते हैं विदेशी भाषा

बोधगया में अलग अलग बौद्ध मंदिरो के पास भीख मांगने वाले महादलित बच्चे तिब्बती, हिंदी,अंग्रेजी के साथ साथ तिब्बती भाषा सिख रहे हैं. चरवाहा स्कूल के पुराने भवन में यह विशेष स्कूल सुबह 8 से 12 बजे तक चलता है.

बोधगया के बकरौर पंचायत के महादलित टोले के पुराने चरवाहा स्कूल भवन में गांव के रामजी मांझी निशुल्क स्कूल चलाते है यह स्कूल सुबह 8 बजे से शुरू होता है. यहां हिंदी, अंग्रेजी भाषाओं के साथ साथ बच्चों को तिब्बती भाषा बोलना सिखाया जाता है. इस विद्यालय में ज्यादातर महादलित टोले के बच्चे है जो यहां पढ़ने आने से पहले गांव के सुजातागढ़ और बौद्ध धार्मिक स्थल पर विदेशी पर्यटकों से भीख मांगते थे या चरवाहा का काम किया करते थे. अब यह भीख मांगना और चरवाहा का काम छोड़ कर स्कूल में अतिथि देवो भवः के लिए तिब्बती भाषा सीख रहे है.

170 बच्चे पढ़ते हैं स्कूल में 

जो हाथ कल तक भीख मांगने के लिए फैला करते थे आज वह पढ़ने में लगे हैं. ये बच्चे तिब्बती भाषा सीख कर यहां आने वाले पर्यटकों के लिए मददगार साबित होंगे चुकी उनकी ही भाषा में वो उनको जानकारी देंगे. इस स्कूल में करीब 170 बच्चे पढ़ते है जो हिंदी ,अंग्रेजी के साथ साथ तिब्बती भाषा सीखते है ताकि आने वाले भविष्य में वह पर्यटकों को उनकी ही भाषा में गाइड कर सके

भीख मांगने का काम करते थे बच्चे 

शिक्षक रामजी मांझी ने बताया कि गांव के महादलित बच्चे ज्यादातर भीख मांगने का काम करते थे लेकिन सुबह में यहां संचालित स्कूल के खुल जाने के कारण अब सभी बच्चे यहां पढ़ने आते है. बताया कि जब बिहार के सीएम लालू प्रसाद यादव थे उस वक्त चरवाहा स्कूल खोला गया था जिसके कुछ ही दिनों के बाद स्कूल बंद हो गया धीरे धीरे स्कूल का भवन छतिग्रस्त होता गया.

पढ़ाने के लिए बच्चों के सामने रखी थी शर्त 

रामजी मांझी बताते है कि भवन की मरम्मती कर वो इसी स्कूल में सभी बच्चे की पढ़ाई करवाते है. रामजी मांझी ने बताया कि सभी बच्चों को पढ़ाने से पहले उन्होंने शर्त रखी की जो बच्चा यहां पढ़ना चाहता है वह मंदिर में भीख मांगने नहीं जायेगा. इसी कारण अब जो बच्चे यहां पढ़ने आते है वह बच्चे मंदिर में भीख मांगने नहीं जाते है.

गांव के लोगों के साथ मिलकर शुरू किया स्कूल 

रामजी मांझी ने ने बताया की हम भी इसी समाज से आते है और घर में पैसे की कमी के कारण 1980 में तिब्बती लोगों के साथ 25 रुपया महीना पर काम करने के दिल्ली लिए चले गए थे. वहीं पर उन लोगों के साथ रहकर उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी और तिब्बती महिला से ही शादी भी की है. मगर कुछ साल बाद जब वो अपने गांव आयें और यहां पर देखा की छोटे छोटे महादलित समाज के बच्चे बौद्ध मंदिर के पास या तो भीख मंगाते है या फिर चरवाहा का काम करते haiहैं तो उन्होंने गांव के लोगों के साथ मिलकर यह निशुल्क स्कूल शुरू किया.

गाइड का काम कर सकेंगे बच्चे 

स्कूल में महादलित बच्चों को हिंदी, अग्रेंजी, गणित के साथ साथ तिब्बती भाषा सिखाई जाती है. क्योंकि बोधगया में तिब्बती पर्यटक बहुत आते है और उन लोगों को हिंदी बोलना नहीं आता है इस स्थिति में यह बच्चे तिब्बती भाषा सिख कर उन्हें इनकी ही भाषा में समझा सकेंगे और गाइड का भी काम कर सकेंगे.

क्या कहते हैं बच्चे 

इस स्कूल में पढ़ने आने वाले बच्चों ने बताया की पहले वह बौद्ध मंदिरों के पास विदेशियों से पैसा मांगने का काम किया करते थे या खेतों में बकरी चराने का काम किया करते थे. लेकिन जब से इस स्कूल में पढ़ने आने लगे तब से मंदिर के पास विदेशी से पैसा मांगने नहीं जाते है. वहीं कुछ छात्रों ने बताया की पहले वह खेतों में बकरी चराने का काम करते थे मगर अब सिर्फ पढ़ाई करते हैं. स्कूल में पढ़ने वाले विक्रम कुमार ने बताया की मेरे माता पिता इट भट्टा पर काम करते है और हमें भी वहां ले जा रहे थे तब हम यहां आ गए हम भट्टा पर काम करना नहीं चाहते है हम पढ़ना चाहते हैं.

रिपोर्ट: पंकज कुमार, गया

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