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Pitru Paksh 2022: प्रेतशिला में पत्थरों के बीच से आती-जाती है आत्मा, सत्तू के पिंडदान करने की है मान्यता

मान्यता है कि जिनकी अकाल मृत्यु होती है उनके यहां सूतक लगा रहता है. सूतक काल में सत्तू का सेवन वर्जित माना गया है. उसका सेवन पिंडदान करने के बाद ही किया जाता है. इसीलिए यहां प्रेतशिला वेदी पर आकर सत्तू उड़ाते व प्रेत आत्माओं से आशीर्वाद व मंगलकामनाएं मांगते हैं.

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 12, 2022 6:58 AM
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गया. अनादि काल से ही हिंदू धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता रही है. धार्मिक व आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार जब तक मोक्ष नहीं मिलता आत्माएं भटकती रहती हैं. इनकी शांति व शुद्धि के लिए गयाजी में पिंडदान करने की परंपरा अनादि काल से ही चली आ रही है. प्राचीन काल से वैसे तो यहां सालों भर पिंडदान का विधान है. लेकिन प्रत्येक वर्ष आश्विन मास में अनंत चतुर्दशी से 17 दिवसीय त्रिपाक्षिक पितृपक्ष मेले का आयोजन होता आ रहा है.

सरोवर पर पिंडदान का विधान

पितरों की प्रेतयोनि से मुक्ति के लिए इस मेले के तीसरे दिन प्रेतशिला व इसके पास स्थित ब्रह्म सरोवर पर पिंडदान का विधान है. इस विधान के तहत इस बार पितृपक्ष मेले में देश के विभिन्न राज्यों से आये डेढ़ लाख से अधिक श्रद्धालुओं ने रविवार को प्रेतशिला व ब्रह्मसरोवर वेदी में पिंडदान का कर्मकांड अपने कुल पंडा के निर्देशन में संपन्न किया.

पिंडदान का कर्मकांड पूरा किया

श्रद्धालुओं की भीड़ इतनी अधिक रहने से काफी श्रद्धालु प्रेतशिला क्षेत्र के बाहर स्थित खेतों व मैदानी भागों में बैठ कर अपने पितरों के लिए पिंडदान का कर्मकांड पूरा किया. धार्मिक मान्यता है कि प्रेतशिला पर्वत पर पितर पिंडदान ग्रहण करने के लिए आने से इसे आत्माओं का पहाड़ भी कहा जाता है. ऐसी मान्यता है कि इस पहाड़ पर आज भी भूत व प्रेत का वास रहता है.

प्रेतशिला पहाड़ पर जाने के लिए 676 सीढ़ियां

इस प्रेतशिला पहाड़ पर जाने के लिए 676 सीढ़ियां बनी हुई हैं. इस पर्वत के शिखर पर प्रेतशिला वेदी है. कहा जाता है कि अकाल मृत्यु से मरने वाले पूर्वजों का प्रेतशिला वेदी पर श्राद्ध व पिंडदान करने का विशेष महत्व है. इस पर्वत पर पिंडदान करने से पूर्वज सीधे पिंड ग्रहण करते हैं. इससे पितरों को कष्टदायी योनियों से मुक्ति मिल जाती है.

यहां सत्तू के पिंडदान करने व उड़ाने की है मान्यता

मान्यता है कि जिनकी अकाल मृत्यु होती है उनके यहां सूतक लगा रहता है. सूतक काल में सत्तू का सेवन वर्जित माना गया है. उसका सेवन पिंडदान करने के बाद ही किया जाता है. इसीलिए यहां प्रेतशिला वेदी पर आकर सत्तू उड़ाते व प्रेत आत्माओं से आशीर्वाद व मंगलकामनाएं मांगते हैं. यहां के धामी पंडा सत्येंद्र पांडेय ने बताया कि इस पर्वत पर धर्मशिला है, जिस पर पिंडदानी ब्रह्मा जी के पद चिह्न पर पिंडदान करके धर्मशिला पर सत्तू उड़ा कर कहते हैं- ”उड़ल सत्तू पितर को पैठ हो”. सत्तू उड़ाते हुए पांच बार परिक्रमा करने से पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति मिल जाने की मान्यता है. इस धर्मशिला में एक दरार है, जिसमें सत्तू का कण जरूर जाना चाहिए. मान्यता है कि यह दरार यमलोक तक जाता है. इस चट्टान के चारों तरफ परिक्रमा कर सत्तू चढ़ाने से अकाल मृत्यु में मरे पूर्वजों को प्रेतयोनि से मुक्ति मिल जाती है. प्रेतशिला में भगवान विष्णु की भी प्रतिमा है. पिंडदानी अकाल मृत्यु वाले लोग की तस्वीर विष्णु चरण पर रख कर उनके मोक्ष की कामना करते हैं.

प्रेतशिला से जुड़ी है यह दंत कथा

प्रेतशिला से जुड़ी एक दंत कथा है कि ब्रह्मा जी ने सोने का पहाड़ ब्राह्मण को दान में दिया था. सोने का पहाड़ दान में देने के बाद ब्रह्मा जी ने ब्राह्मणों से शर्त रखा था कि किसी से दान लेने से यह सोने का पर्वत पत्थर का हो जायेगा. किदवंती है कि राजा भोग ने छल से पंडा को दान दे दिया. इसके बाद ये पर्वत पत्थरों का बन गया. ब्राह्मणों ने जीविका के लिए भगवान ब्रह्मा से गुहार लगायी. तब ब्रह्मा जी ने कहा इस पहाड़ पर बैठ कर मेरे पांव पर जो पिंडदान करेगा, उसके पितर को प्रेतयोनि से मुक्ति मिलेगी. इस पर्वत पर तीन स्वर्ण रेखाएं हैं. कहा जाता है कि तीनों स्वर्ण रेखाओं में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान रहेंगे. तबसे इस पर्वत का प्रेतशिला नाम पड़ा व ब्रह्माजी के पदचिह्न पर पिंडदान होने लगा.

शाम छह बजे के बाद पसर जाता है सन्नाटा

पिंडदान के कर्मकांड से जुड़े लोगों का कहना है कि पहाड़ पर आज भी भूतों का डेरा रहता है. मध्य रात्रि में यहां प्रेत के भगवान आते हैं. यही कारण है कि यहां शाम छह बजे के बाद कोई नहीं रुकता है. कोई भी शाम छह बजे के बाद नहीं रुकता है. यहां तक कि पंडा जी भी इस पर्वत से उतर कर वापस घर चले जाते हैं.

पत्थरों के बीच से आती-जाती है आत्मा

प्रेतशिला के पास स्थित पत्थरों में छिद्र व दरारें हैं. इसके बारे में कहा जाता है कि इन पत्थरों के उस पार रोमांच व रहस्य की ऐसी दुनिया है, जो लोक व परलोक के बीच कड़ी का काम करती है. इन दरारों के बारे में ये कहा जाता है कि प्रेत आत्माएं इनसे होकर आती हैं व अपने परिजनों द्वारा किये गये पिंडदान को ग्रहण कर वापस चली जाती हैं. कहा यह भी जाता है कि लोग जब यहां पिंडदान करने पहुंचते हैं, तो उनके पूर्वजों की आत्माएं भी उनके साथ यहां चली आती हैं.

धामी पंडा यहां कराते हैं श्राद्ध

गयाजी के दक्षिणी क्षेत्रों में स्थित वेदी स्थलों पर गयापाल पंडाजी श्राद्ध व पिंडदान का कर्मकांड कराते हैं. लेकिन, प्रेतशिला, ब्रह्म सरोवर, रामकुंड, रामशिला कागवली, उत्तर मानस वेदी स्थलों पर धामी पंडा ही पिंडदान, श्राद्धकर्म व तर्पण का कर्मकांड कराते हैं. इनके नाम पर शहर में एक मुहल्ला भी है, जिसे धामी टोला कहा जाता है.

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वृद्ध व लाचार पिंडदानी खटोले का लेते हैं सहारा

प्रेतशिला पर्वत की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ने के लिए वृद्ध व लाचार पिंडदानी खटोले का सहारा लेते हैं. इसके लिए आसपास के करीब डेढ़ सौ परिवार खटोले लेकर खड़े रहते हैं. पिंडदानियों की मांग पर 800 से 2000 रुपये तक प्रति यात्री किराये के रूप में लेते हैं. तब उन्हें खटोले से प्रेतशिला पर्वत की सबसे ऊंची चोटी तक लाने व ले जाने का काम करते हैं.

ब्रह्मकुंड का विशेष महत्व

प्रेतशिला के नीचे ब्रह्मकुंड यानी ब्रह्म सरोवर स्थित है. इसके बारे में कहा जाता है कि इसका प्रथम संस्कार ब्रह्मा जी द्वारा किया गया था.

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