Handloom Day: कभी महारानी विक्टोरिया पहनती थीं गया में बने कपड़े, काफी पुराना है यहां का इतिहास
गया जिले में हस्तकरघा का इतिहास काफी पुराना है. जिले के पटवाटोली में ब्रिटिश शासन काल से ही कपड़ों का निर्माण चल रहा. यहां के कारीगारों ने बड़े-बड़ों को अपना मुरीद बनाया है. आज भी यहां पुराने बुनकरों की मिसाल दी जाती है. लेकिन आज पावरलूमों की मशीनों की संख्या ज्यादा है. अधिकतर युवा कामगार हैंडलूम चलाना नहीं जानते. जिस वजह से आज जिले में हैंडलूम की संख्या मात्र 200 के आसपास है. हस्तकरघा दिवस पर पेश है गया के मानपुर से उदय शंकर प्रसाद की विशेष रिपोर्ट...
Handloom Day: गया के मानपुर पटवाटोली में ब्रिटिश शासन काल से ही कपड़ों का निर्माण कार्य चल रहा है. समय के साथ यहां कपड़े के निर्माण कार्य में काफी बदलाव हुआ है. पहले हैंडलुम (हस्तकरघा) से मानव बल के द्वारा सूती, रेशमी व सिल्क के कपड़ाें का निर्माण हुआ करता था. हालांकि अब हैंडलूम मशीनें विलुप्त होने के कगार पर हैं और इसकी जगह पावरलूम (विद्युत ऊर्जा संचालित) ने ले लिया है. पटवाटोली, पेहानी, रेवरटोली के पुराने बुनकरों ने बताया कि मानपुर में पहले उच्च क्वालिटी के सिल्क के कपड़े का हैंडलूम पर निर्माण किया जाता था. जब देश में ब्रिटिश हुकूमत थी, तो मानपुर में बने कपड़ा का इस्तेमाल महारानी विक्टोरिया ने किया था.
जिले में हैंडलूम की संख्या अब मात्र 200
मानपुर में पहले पटवा, तांती, पान, गड़ेरिया के साथ जुलहा (अंसारी) समाज के लोग भी कपड़ा निर्माण कार्य से जुड़े हुए थे, लेकिन अब स्थिति बदल गयी है और हस्तकरघा चलाने वाले लोगों की संख्या बस कुछ ही बची है. मानपुर के पटवाटोली, पेहानी, शिवचरण लेन, भदेजा, गेरे, वजीरगंज के शंकरबिगहा व चाकंद के रहीमबिगहा, बढ़ीबिगहा व पीरबिगहा में एक दो घरों में हस्तकरघा संचालित हैं. कुल मिलाकर गया जिले में हैंडलूम की संख्या मात्र 200 के आसपास है.
मानपुर की पटवाटोली में 11 हजार पावरलूम संचालित
सरकार हस्तकरघा उद्योग को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही है, पर मूल समस्या है कि उत्पादित कपड़े का बाजार में वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है. इस कारण लोग इस उद्योग से अपना मुंह मोड़ रहे हैं. पटवाटोली में आज की तारीख में 11 हजार पवारलूम प्लांट संचालित हैं. सामाजिक कार्यकर्ता गोपाल पटवा व दुखन पटवा ने बताया कि मानपुर में निर्मित सूती कपड़े बिहार, बंगाल व झारखंड के अलावा नेपाल व बांग्लादेश भेजे जाते हैं.
अभी मानपुर में 11 हजार पावरलूम प्लांट संचालित हैं और इसके संचालन में लगभग 15 हजार मजदूर 24 घंटे काम कर रहे हैं. पावरलूम में कम समय और कम लागत में अधिक कपड़ा का उत्पादन होता है. इसके चलाने में विद्युत ऊर्जा की जरूरत होती है और हैंडलूम को चलाने में मानव बल के साथ कुशल कारीगर की जरूरत होती हैं. सबसे बड़ी बात है कि आज की युवा पीढ़ी हैंडलूम मशीन चलाना ही नहीं जानती है.
रेलवे, अस्पताल व सरकारी दफ्तरों में हैंडलूम निर्मित बेडसीट, चादर व परदे की मांग
पेहानी के रहनेवाले 78 वर्षीय मोहमद रफीक अंसारी ने बताया कि वह बचपन से ही हैंडलूम मशीनें चलाकर जीवन यापन कर रहे हैं. मूल रूप से कोंच थाना क्षेत्र के नऊधि मोहद्दीपुर गांव के रहने वाले हैं. काम की तलाश में मानपुर आकार रहने लगे. उन्होंने बताया कि अभी हैंडलूम से निर्मित वस्त्र (बेडसीट,चादर, परदे आदि) रेलवे, सरकारी अस्पताल, सरकारी दफ्तरों में अधिक प्रयोग किये जा रहे हैं.
उन्होंने बताया कि हैंडलूम चलाना हर किसी के वश में नहीं है. उसे चलाने के लिए ताकत, शांति व धैर्य की आवश्यकता है. 12 घंटे काम करने पर मजदूरी 300 से 350 रुपये मिलती है. इतने कम पैसे में आज नौजवान काम नहीं कर सकते हैं. 12 घंटे काम करने पर पावरलूम में 1000 से 1200 रुपये मजदूरी हो जाती है.
पुराने वक्त में ऐसे तैयार होता था सिल्क का कपड़ा
मानपुर शहर के रेवार टोली मुहल्ले के रहनेवाले मथुरा प्रसाद के घर में शहतूत के पौधों से मिलनेवाले कोकूनों को लाकर रेशम के धागे बनाये जाते थे और उस धागे से सिल्क कपड़े का निर्माण हुआ करता था. उसमे घर के सभी सदस्यों की अहम भूमिका होती थी.
महिलाएं कोकूनों को गर्म पानी से भरे लोहे या एल्यूमीनियम के बर्तन में डालकर खूब खौलाती थीं. उसके बाद उसके अंदर शहतूत के कीड़े को अलग करती थीं. उसके बाद पानी में अच्छे से साफ कर धूप में सुखाया जाता था. इसके बाद कोकूनों से करघे में महीन सूत कताई की जाती थी.
सूत कताई के बाद उसे बड़े बीम में लपेटा जाता था और तब जाकर हैंडलूम मशीन से सिल्क के कपड़ाें का निर्माण होता था. कपड़ा तैयार होने पर कैलेंडरिंग के लिए नवादा, भागलपुर या बिहारशरीफ भेजा जाता था. इस काम में लगभग घर के सभी सदस्यों की अलग-अलग भूमिका होती थी.