दिन भर मांगते पचगोइठी, रात को सुनते फाग
गोपालगंज. बचपन में गांव में होली के पहले से ही छोटे बच्चों में एक उल्लास शुरू हो जाता था. वसंत पंचमी की शाम को गांव के बाहर एक बांस गाड़ दिया जाता था, जिसे सम्मत कहते थे. उसी दिन से बच्चे झुंड बना कर घर-घर घूम कर व गीत गा कर पचगोइठी मांगते थे. वह […]
गोपालगंज. बचपन में गांव में होली के पहले से ही छोटे बच्चों में एक उल्लास शुरू हो जाता था. वसंत पंचमी की शाम को गांव के बाहर एक बांस गाड़ दिया जाता था, जिसे सम्मत कहते थे. उसी दिन से बच्चे झुंड बना कर घर-घर घूम कर व गीत गा कर पचगोइठी मांगते थे. वह गीत आज भी मुझे याद है. दिन भर पचगोइठी मांगते और रात में फाग सुनते थे. जो लोग पचगोइठी नहीं देते उनके घर पर रखी लकडी या छोटी खिटया उठा ले जाते और उसे सम्मत में डाल देते. लोग माता-पिता से (ओरहन देते) शिकायत करते थे. लेकिन, लोगों में यह विश्वास था कि जो वस्तु सम्मत मइया को समिर्पत हो गयी, उसे वापस नहीं लेना चाहिए. गांव में बड़े सामूहिक रूप से फगुआ गाते और झाल बजाते थे. यह कार्यक्र म रात के एक दो बजे तक चलता था. इस त्योहार के स्वरूप में परिवर्तन आया है. प्रेम व सौहार्द खत्म होता जा रहा है. इसे बचाना होगा. वर्तमान में लोग एक दूसरे को ऐसे रंग लगाते जिसे छुड़ाने में घंटों क्या कहें, कई दिन लग जाते हैं. इनसे बचने की जरूरत है.