Hindi Diwas 2020 : लोक साहित्य हिंदी का रूप-रस-गंध है

13वीं सदी में हिंदीभाषी क्षेत्र के हृदय दो आवे में पटियाली गांव में जन्मा एक विदेशी सामंत का लड़का, जो अपने नाना नवाब एमादुल्मुल्क की देखरेख में फारसी, अरबी, तुर्की की शिक्षा से संपन्न हुआ, मनोविनाेद या लोकप्रियता के लिए नहीं, बल्कि एक भीतरी आस्था से हिंदी में लिखने को प्रवृत्त हुआ.

By Prabhat Khabar News Desk | September 13, 2020 11:52 PM

उषा किरण खान : 12वीं सदी में कवि चंद बरदाई ने सुविख्यात दोहा कहा, जो हिंदी क्षेत्र के पढ़े-बेपढ़े सबों की जुबान पर हैं.

चार बांस चौबीस गज

अंगुल अष्ट प्रमाण

तति पे सुलतान है

मत चूको चौहान.

हिंदी का यह दोहा पृथ्वीराज चौहान के लिए था, जब उनकी आंखें फोड़ दी गयी थीं और हंसी उड़ाने के लिए धनुष थमाया गया था. बहरहाल, उस शर्मनाक ऐतिहासिक घटना का जिक्र करने में मैं यहां आयी. मेरा आशय है कि दिल्ली के आसपास की लोकभाषा ही हिंदी के आधार के रूप में धूर 12वीं सदी में हमारे सामने प्रस्तुत है. 13वीं सदी में हिंदीभाषी क्षेत्र के हृदय दो आवे में पटियाली गांव में जन्मा एक विदेशी सामंत का लड़का, जो अपने नाना नवाब एमादुल्मुल्क की देखरेख में फारसी, अरबी, तुर्की की शिक्षा से संपन्न हुआ, मनोविनाेद या लोकप्रियता के लिए नहीं, बल्कि एक भीतरी आस्था से हिंदी में लिखने को प्रवृत्त हुआ. उन्हीं का उद्धहरण है- ”हिंदी फारसी से अच्छी है, क्योंकि वह दूसरी भाषा को अपने में मिलने नहीं देती. शरीर से सभी वस्तुओं का मेल हो सकता है, पर प्राण से नहीं हो सकता.” लोकभाषा हिंदी की प्राण है. खुसरो अपने जमाने से बहुत आगे की देखते हैं. वह शैशवावस्था की हिंदी में एक विशालता की संभावना देख सकते हैं.

वह पांडित्य राजनीतिक दायित्व और वर्गीय हित को ताक पर रखकर आम लोगों की भाषा में, आमलोगों के भाव, आम लोगों के जीवन के विंबों के सहारे इसलिए कह सकते थे कि उनके राजसी ठाट के भीतर एक प्यार का सोता था निजामुद्दीन औलिया जैसा संत! निजामुद्दीन औलिया के इस संसार से विदा होने की खबर जब उनके प्रिय शिष्य कवि अमीर खुसरो ने दुनिया को दी तो अरबी-फारसी या उर्दू में नहीं, बल्कि ठेठ हिंदी में-

”गोरी सोई सेज पर मुख पर डारे केस

चल खुसरो घर अपने रैन भई चहुं देस.”

दो आबे का लोकरंग लोकभाषा खड़ी बोली के रूप में हिंदी के प्राणों में ऐसी बसी कि एकदिल हो रही. अमीर खुसरो के प्रयास से हिंदुस्तान की धरती का राग-विराग, रीति-रिवाज, गीत उत्सव हिंदी में समाहित हो गये.

छोटे-छोटे सामान्य जीवन के चटपटे प्रसंग असंख्य उपलब्ध अनुपलब्ध मुकरियों में दिखती है-”जब मांगू तब जल भरि लावे

मेरे मन की विपत्ति बुझावे,

मन का मारी तन का छोटा

ऐ सखि साजन, ना सखि लोटा.”

14वीं सदी में धुर पूर्वांचलीय कवि विद्यापति का आर्विभाव होता है. विद्यापति ने भी संस्कृत के सहज होते रूप को भी साहित्य और जनशिक्षण के लिए त्याग दिया और बोलचाल की भाषा का प्रयोग कविता में करने लगे. बोलचाल की वह भाषा मैथिली थी, जो मिथिला के विशाल क्षेत्र में बोली जाती थी. विद्यापति की कविताएं भी हिंदी के निर्माण में, उसे अलंकृत करने में उसकी व्यापकता पूर्वी क्षेत्र में प्रसारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती. उनका कहना सच ही था- ”देसिल बयना सब जन मिट्ठा”

साथ ही

”बालचंद्र विज्जावई भाषा दुहुनहि लागई दुज्जन हासा”

अर्थात

बल्कि चंद्रमा और विद्यापति की भाषा को दुर्जनों के हास-परिहास से कुछ न बिगड़ेगा वे पूर्णचंद्र तक पहुंचेंगे. आज विद्यापति के कथन का ब्याज हम काट रहे हैं. हिंदुस्तान के पूरबी क्षेत्र और पश्चिमी क्षेत्र की बयार ने गंगा किनारों को छूना शुरू किया.

मलिक मुहम्मद जायसी, रसखान, अब्दुर्रहीम खान खाना और संत सूरदास तथा तुलसी दास. रैदास और मीरा बाई सारे के सारे कवि अपनी-अपनी लोकभाषा के फूल लेकर पहुंचे हिंदी के द्वार पर माला पिरोने.

”जौ खग हों तो बसेर करूं कालिंदी कूल कदंब के डारन

मानुष हों तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गांव की ग्वारन|”

सूर कहते हैं – ”मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो”

मीरा कहती हैं – ”मैं तो गोविंद आगे नाचूंगी”

रैदास कहते हैं – ”तुम चंदन हम पानी प्रभुजी”

और तुलसी कहते हैं- ”तुलसी मस्तक तब नबै, जब धनुष वाण लो हाथ”

रहीम ने कहा – ”रहिमन धारा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाएं|”

तो- कृष्णमय हिंदी लोकभाषा समान असंख्य गोपियों के साथ महारास न करती तो शीर्षस्थ कैसे होती?

राष्ट्र को हिंदी की जरूरत थी सो उसे सिंह गर्जन करनी थी, धनुष वाण हाथ में लेना ही था, तुलसी को विनयावनत जो करना था. राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान के लिए संगठित रूप से कवित्त दोहे से ऊपर उठकर हिंदी को गद्य की अहम भूमिका निभानी थी. नाटक लिखकर गद्य साहित्य का विकास करना, अवरोधों की ओर समाज का ध्यान खींचना हिंदी के लिए बड़ा काम था. वह कार्य भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया. उनकी पूर्वी भाेजपुरी ने हिंदी को एक और स्वरूप दिया. हिंदी तत्सम और तद्भव के घूर्णित चक्र में फंस गयी. गोल-गोल घूमती रहीं. देश के आजाद होते-होते जो गद्यकार सामने आये, उन्होंने अपने-अपने अंचल की भाषा का हिंदी में समावेश किया तथा समृद्ध बनाया. पश्चिम से कृष्णा सोबती, यादवेंद्र शर्मा चंद्र, डॉ रांगेय राघव आदि ने हिंदी को लोकभाषा के सुंदर प्रयोग दिये. बीच की ओर बढ़ें तो आधुनिक हिंदी में धर्मवीर भारती, अमरकांत, शिव प्रसाद सिंह, विद्यानिवास मिश्र आदि ने अपनी भाषाओं की बधार हिंदी में लगायी.

बिहार के राजा राधिकारमण सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी और प्रि: मनोरंजन प्रसाद ने हिंदी में लोकभाषा का सुंदर प्रयोग किया. बाबा नागार्जुन ने लाेकभाषा का सर्वोत्कृष्ट प्रयोग हिंदी में किया. उनके उपन्यास और कुछ कविताएं सुंदर साहित्य का नमूना हैं, जिनमें कोयल मैथिली और ऊर्जस्व भोजपुरी का छौंक है.

अन्तत: फणीश्वरनाथ रेणु का युग आया, जिन्होंने पूर्वी मैथिली आंचल को अपने साहित्य के आकाश का सितारा बना टांक दिया. तब लोकभाषा से मंडित साहित्य को आंचलिक साहित्य कहा जाने लगा. आंचलिक साहित्य का जलवा आज की हिंदी के सर चढ़ कर बोल रहा है. लोकभाषा तो हिंदी का रूप-रस-गंध है, हिंदी यदि वर्ष है तो लोकभाषा उसका ऋतुराज बसंत है.

posted by ashish jha

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