आजादी की लड़ाई में शुरू से ही गांधीजी के अनुयायी रहे सिधवलिया प्रखंड के शाहपुर निवासी हरिकिशुन कुंवर से जब अंग्रेजों का अत्याचार देखा नहीं गया, तो वे गांधी के अहिंसा के रास्ते को छोड़कर गरम दल में शामिल हो गये और तब इनकी अंग्रेजों के प्रति विध्वंसकारी सोच खुल कर सामने आयी. इनके दिमाग में ये बात आयी कि अंग्रेज प्यार की भाषा नहीं समझेगें और हमारा देश आजाद नहीं होगा. इस सोच को लेकर क्रांतिकारी विचारधारा से जुड़े और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हुए आंदोलन में कूद पड़े. जब वे अंग्रेजों के पीछे पड़ गये, तो उन्हें भगा कर ही दम लिया.
शुरू से नरम दल के विचारधारा वाले हरिकिशुन कुंवर ने गांधीजी के साथ 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया, लेकिन अंग्रेजों की दमनकारी नीति ने इनको झकझोर दिया कि अंग्रेज आसानी से भारत को आजाद नहीं करेंगे, बल्कि इसके लिए अंग्रेजों के साथ बल प्रयोग आवश्यक होगा. तब से हरिकिशुन कुंवर को जहां भी मौका मिलता, अपने साथियों के साथ अंग्रेजों को नुकसान पहुंचाने से नहीं चूकते. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के शुरूआती दौर से ही अंग्रेजों के साथ इनका लुका-छिपी का खेल चलता रहा. इनका संबंध बरौली के अन्य क्रांतिकारियों भूलन राय, चंद्रिका राय, हरकेश दुबे, मौलाना अजीज, खेमन साई आदि के साथ रहा और उन्होंने पूरी तरह अंग्रेजों को मार भगाने के लिए कमर कस ली.
भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत और अंग्रेजों की दमनकारी नीति के विरोध में उनके शरीर में आजादी के लिए खून उबाल मारने लगा तथा अंग्रेजों के प्रति आक्रोश अपना रंग दिखाने लगा. जिले के अन्य क्रांतिकारियों से इनकी मुलाकात हुई और आजादी की लड़ाई में करो या मरो का नारा लगाकर कूद पड़े. बरौली का गांधी आश्रम तब क्रांतिकारियों का मुख्य अड्डा बन चुका था. यहीं पर क्षेत्र के सारे क्रांतिकारी एक साथ बैठ कर हर तरह का फैसला लेते. यहां सारी रात बैठक चलती तथा आगे का प्लान बनाया जाता. हरिकिशुन कुंवर के जिम्मे सिधवलिया का रेलवे स्टेशन और रेलवे लाइन उखाड़ने की जिम्मेवारी दी गयी, क्योंकि अंग्रेजों के आने का यह मुख्य साधन था. इन्होंने 1942 में रेल लाइन को न केवल उखाड़ा बल्कि बिजली के तार, पोल, डाकघर को भी जलाया.
हरिकिशुन कुंवर तो पूर्व से ही अंग्रेजों की आंखों में खटक रहे थे, लेकिन अंग्रेजों को भारी नुकसान पहुंचाने से ये बहुत जल्द आंखों की किरकिरी बन गये और इनकी तलाश हर अंग्रेज अफसर तथा सिपाहियों को होने लगी. इनके पास इतनी हिम्मत थी कि वे खुलेआम अंग्रेजों के सामने पहुंच जाते और उन पर हमला कर घायल कर देते. स्टेशन जलाने और सिग्नलों को तोड़ने के बाद अंग्रेजों ने 1942 के सितंबर माह की एक अंधेरी रात में इनके घर छापेमारी की और पकड़ लिया. इन पर मुकदमा चला और छह माह छपरा के जेल में रहने के बाद छह माह के लिए भागलपुर जेल में सजा काटने के लिए भेज दिया. भागलपुर जेल में इनके साथ अंग्रेजों का व्यवहार बर्बरतापूर्ण था, लेकिन ये जेल से ही अंग्रेजों की खिलाफत करते रहे. बाद में थक हार कर इनको अंडमान निकोबार में काला पानी की सजा देते हुए भेज दिया गया. जहां 29 दिनों तक उन्हें कठोर सजा दी गयी, लेकिन वे झुके नहीं.
1942 जनवरी माह में पकड़े जाने के बाद इनको पहले छपरा फिर भागलपुर के जेल में डाल दिया गया. वहां पहले उनको लालच दी गयी, लेकिन वे नहीं डिगे, तो इन पर अंग्रेजों द्वारा अमानवीय अत्याचार का दौर शुरू हुआ. इनको काल पानी की सजा दी गयी, जहां इनके हाथों और पैरों में लोहे की कीलें ठोंक दी गयी, लेकिन वे भारत माता की जय, वंदे मातरम् आदि का नारा लगाते रहे. हरिकिशुन कुंवर में न अन्य क्रांतिकारियों का नाम लिया, और न ही उनको पकड़वाया. अपनी आवाज और बुलंद करते रहे. वे जब जेल से बाहर आये,तो फिर से अंग्रेजों से जूझने लगे. इसके बाद फिर कभी जेल नहीं गए.