पटना. दरभंगा में नेशनल स्कूल की स्थापना 1922 में हुई. स्थापना के बाद ही यह स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र बन गया. अगले 27 वर्ष तक नेशनल स्कूल आजादी की लड़ाई की कई कहानियों का स्थल रहा है. महात्मा गांधी के आह्वान पर यहीं पं. रामनंदन मिश्र ने अपनी पत्नी को पर्दा प्रथा से मुक्त कर नारी चेतना का शंखनाद किया था.
बताया जाता है कि दरभंगा की एक सभा को संबोधित करने गांधी आये थे. एक जमींदार के घर पैदा हुए रामनंदन गांधी की उस सभा में एक छात्र की हैसियत से पहुंचे थे. उस सभा में एक किनारे में कुछ औरतें भी बैठी थीं, अलग-थलग, घूंघट काढ़े. गांधी जी ने औरतों की ओर देखते हुए कहा कि यह मिथिला की भूमि है. यहां एक पर एक विदूषी हुई हैं. स्त्रियों को घूंघट और घर की दहलीज में कैद रखना, पढ़ने से रोकना ठीक नहीं है. गांधी के इस बयान का इतना असर हुआ है कि दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह ने अपनी महारानी राजलक्ष्मी के महाराष्ट्र की शिक्षिका गंगाबाई को नियुक्त करने का फैसला किया.
इधर, साबरमती लौटते ही गांधी जी को रामनंदन की चिट्ठी मिली. बापू मैं अपनी पत्नी को पर्दा प्रथा से मुक्त कराना चाहता हूँ. पढ़ाना लिखाना चाहता हूँ. रामनंदन की चिट्ठी को बापू ने बड़ी गंभीरता से लिया. अपने भतीजे मगनलाल को इस काम के लिए बिहार भेज दिया. मगनलाल के साथ उनकी बेटियां थीं, जिन्हें रामनंदन की पत्नी को पढ़ाना था. पिता परंपरावादी थे, उनसे सीधे कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी. चिट्ठी लिखी, अपनी बात रखी और पत्नी को लेकर गया चले गये ससुराल.
घर में बड़ा बखेड़ा हुआ, मगर रामनंदन अडिग थे. पढ़ाई शुरू हुई और साथ ही पर्दा प्रथा से मुक्ति और स्त्री शिक्षा का आंदोलन शुरू हुआ. दरभंगा के नेशनल स्कूल में नारी शिक्षा का प्रचार प्रसार किया और पर्दा प्रथा के खिलाफ जागरुकता फैलाते रहे. मगनलाल पटना में जम ही गये. समूह बनी ही थी कि दुर्भाग्यवश मगनलाल की असामयिक मृत्यु हो गयी. रामनंदन का निश्चय इसके बावजूद नहीं डिगा. घर द्वार जमींदारी छोड़ अपनी झोपड़ी बना ली और मगनलाल के नाम और मगन आश्रम की शुरुआत कर दी, जो आज भी दरभंगा में सक्रिय है.
गांधी के करीब आने के बाद रामनंदन का जीवन सत्य, अहिंसा और ईमानदारी को समर्पित हो गया. वो पूरी तरह वंचित समाज के लिए समर्पित हो गये. चंपारण सत्याग्रह के बाद भी जब वहां के किसानों की स्थिति नहीं सुधरी तो वे वहां के भूमिहीन किसानों के लिए संघर्ष करने लगे. बाद में यहां के किसानों के सवालों पर समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर एक रिपोर्ट तैयार की, जिसे आज भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. वे ब्रिटिश सरकार के साथ साथ देसी सरकारों से भी उनकी गलतियों की मुखालफत करते रहे.
1935 में जब बिहार में कांग्रेस ने सरकार बनायी तो उस सरकार को सवालों के घेरे में डालने वाले रामनंदन थे. जब उस सरकार ने चंपारण के किसानों के बदले कांग्रेस के नेताओं और उनके संबंधियों को जमीन दे दी, तो रामनंदन ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ आंदोलन किया. गांधी तक से इस सरकार की शिकायत की. यही वजह रही कि 1952 के चुनाव में दरभंगा संसदीय सीट से उन्हें हार का सामना करना पड़ा और कांग्रेस उम्मीदवार से वो चुनाव हार गये.
वे अपने संस्मरण में एक बड़ा रोचक प्रसंग लिखते हैं कि एक बार जब गांधी जी से उन्होंने उस कांग्रेस सरकार की यह कहते हुए शिकायत की कि अब तो यह सरकार उन जैसों की बात नहीं सुनती. उनकी चिट्ठियों का जवाब नहीं देती, तो गांधी जी ने कहा था, जब ये मेरी चिट्ठियों का जवाब नहीं देते तो तुम्हारी चिट्ठियों का जवाब क्या देंगे. बहरहाल, आज़ादी के बाद देश के साथ उन्होंने भी गांधी को खो दिया, फिर राजनीति के बदले उनका झुकाव अध्यात्म की तरफ हो गया. मगर गांधी का विचार हमेशा उनके साथ रहा. उनके जीवन के कई ऐसे प्रसंग हैं, जो दिल को छू लेते हैं.
आज बेशक लोग ये पूछ देते हैं कि रामनंदन जी कौन थे, लेकिन यह सवाल उस पीढ़ी के लिए है जिसने अपने समय के असली नायकों को सामने लाने में रुचि नहीं ली. पत्रकार निराला बिदेसिया कहते हैं कि रामनंदन मिश्र जैसा सौ टका खरा आदमी आज के जमाने में क्या, उस जमाने में भी दुर्लभ था, जब देश स्वतंत्रता की तलाश में था. क्योंकि उस जमाने में भी गांधी जी की जय बोलने वाले तो सैकड़ों थे, गांधी के विचारों को कोई कोई अपने जीवन में उतारता था. उस लिहाज से रामनंदन जी सौ फीसदी मेड बाय गांधी थे.