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विकलांग अनिल चला रहा पान गुमटी

विकलांग अनिल चला रहा पान गुमटी कर रहा है पांच परिवार के दो जुन की रोटी का इंतजाम गरीबी के बावजूद नहीं है बीपीएल में नाम सरकारी रहनुमाओं पर टिकी है नजरेंफोटो-05 इंट्रो. अपने बुलंद हौसले के साथ पैर से विकलांग अनिल अपने घर के पांच सदस्यों का भरण-पोषण करने में जुटा है. अनिल को […]

विकलांग अनिल चला रहा पान गुमटी कर रहा है पांच परिवार के दो जुन की रोटी का इंतजाम गरीबी के बावजूद नहीं है बीपीएल में नाम सरकारी रहनुमाओं पर टिकी है नजरेंफोटो-05 इंट्रो. अपने बुलंद हौसले के साथ पैर से विकलांग अनिल अपने घर के पांच सदस्यों का भरण-पोषण करने में जुटा है. अनिल को वर्ष 2013 से विकलांगता पेंशन के तहत 400 रुपये मासिक की सहायता सरकार से जरूर मिल रही है लेकिन अब तक उसका नाम बीपीएल सूची में नहीं. अब अनिल की नजरें सरकारी रहनुमाओं पर इस आस में टिकी है कि कब उसका नाम बीपीएल सूची में आयेगा और उसका लाभ उसे मिल सकेगा,जिससे की परिवार की गाड़ी खिंचने में उसे सहायता मिलेगी. रतनी(जहानाबाद). जहां चाह वहीं राह. जब हौसले बुलंद हो और कुछ करने की चाहत हो तो हर राह आसान हो जाता है. कुछ ऐसा ही वाकया है पैर से विकलांग शकुराबाद के 25 वर्षीय अनिल का. पान की गुमटी चलाकर न सिर्फ अपना बल्कि अपने पांच परिवारों की परवरिश भी कर रहा है. बचपन से पैर से विकलांग अनिल को वर्ष 2013 से विकलांगता पेंशन के तहत 400 रुपये मासिक सरकार से जरूर मिल रहा है लेकिन उसका नाम बीपीएल सूची में नहीं है, जिसका उसे मलाल है. सरकारी रहनुमाओं की नजर अब तक इस परिवार तक नहीं पहुंची है हालांकि बीपीएल सूची में नाम जोड़वाने के लिए कई बार प्रखंड मुख्यालय का चक्कर काट कर यह थक चुका है. महज तीन कमरों में अपने पूरे परिवार के साथ रह रहे इस विकलांग युवक की नजर सरकारी रहनुमाओं पर टिकी है कि कब उसका नाम बीपीएल सूची में आयेगा ताकि इस गरीब लाचार परिवार को भी सरकारी लाभ मिल सकेगा. अनिल बताता है कि कक्षा आठ तक की पढ़ाई करने के बाद घर की माली हालत को देखते हुए बीच में ही पढ़ाई छोड़कर कमाने का फैसला लिया . कमाने के उदे्श्य से छोटी उम्र में ही वर्ष 2000 में लुधियाना जाकर एक छोटे से कारखाने में महज 1500 रुपये महीना पर बैठ कर पैकिंग करने का काम शुरू किया. इतनी छोटी पगार से पूरे परिवार का भरण पोषण करना आसान नहीं था. फिर भी वह इसी काम को करते हुए वर्ष 2003 में अपनी बड़ी बहन की शादी की तथा वर्ष 2005 में कोई अच्छी पगार पर नौकरी नहीं मिलने तथा विकलांगता की रिस ने उसे घर लौटने को मजबूर कर दिया. वर्ष 2005 में अपने घर शकुराबाद में ही पान की गुमटी खोलकर अपना व अपने परिवार की परवरिश करने का फैसला लिया. आज भी उसे चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. अभी उसे एक और छोटी बहन की शादी के अलावा छोटे भाई की पढ़ाई का जिम्मा है. वह बताता है कि प्रतिदिन लगभग 200 रुपये पान बेचकर कमाते हैं जिससे घर खर्च के अलावा बहन की शादी व भाई की पढ़ाई पूरा कराने के लिए तत्पर हैं. दो भाई व दो बहन में बड़ा यह विकलांग युवक अपने शालिन व्यवहार से ग्राहकों के बीच चहेता बना रहता है. हालांकि इस कार्य में उसे पिता का भी कमोवेश सहयोग मिलता है. फिलहाल उसे आगे न पढ़ने का रिस उसके जेहन में साफ झलकता है.

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