Jitiya Vrat 2022: पूरबियों के मशहूर त्योहारों और धार्मिक भावनाओं का एक पर्व है जितिया व्रत. 17 अक्टूबर को जब देशभर में भगवान विश्वकर्मा के लिए हवन-पूजन का आयोजन किया जा रहा है तब पूरब में जितिया व्रत के लिए माताएं नहाय-खाय करने के साथ ही पूजन की तैयारी भी कर रही हैं. इस साल 18 सितंबर को यह व्रत रखा जाएगा. इस निर्जला व्रत को जीवित्पुत्रिका (Jitiya Vrat kab hai) व्रत भी कहते हैं.
सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि जितिया का यह व्रत क्यों महत्वपूर्ण हैं? धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जिनको लंबे समय से संतान नहीं हो रही है, उनके लिए जितिया का व्रत (Jitiya Vrat) तप के समान माना जाता है. संतान की आयु बढ़ाने और उन्हें हर तरह का सुख उपलबध कराने की कामना वाली भावना के साथ महिलाएं यह व्रत करती हैं. यह निर्जला व्रत होता है. इस व्रत में नहाय खाय की परंपरा होती है. कई राज्यों में इसे ‘जिउतिया’ भी कहते हैं. यह व्रत उत्तर प्रदेश समेत बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में मनाया जाता है.
जैसा कि आपको पहले ही बताया जा चुका है कि माताएं अपनी संतान की लंबी उम्र और उसकी रक्षा व सफलता के लिए निर्जला उपवास रखती हैं. तीन दिन तक चलने वाले इस उपवास में महिलाएं जल नहीं पीती हैं. ऐसी मान्यताएं हैं कि जो लोग संतान की कामना करते हैं उन्हें भी यह व्रत करने से जल्दी संतान प्राप्त होती है. हिन्दू पंचांग के अनुसार साल 2022 में जितिया व्रत अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से लेकर नवमी तिथि तक मनाया जाता है. इस बार यह उपवास 18 सितंबर की रात से शुरू होगा और 19 सितंबर तक चलेगा.व्रत का पारण 19 सितंबर को ही किया जाएगा.
उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में 17 सितंबर को जितिया व्रत की शुरुआत नहाय खाय के साथ किया गया. उसके बाद 18 सितंबर को व्रत रखा जाएगा. ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक, 17 सितंबर को दोपहर 2.14 बजे अष्टमी तिथि प्रारंभ होगी और 18 सितंबर दोपहर 4.32 पर अष्टमी तिथि समाप्त हो जाएगी. इसके बाद जितिया का व्रत 18 सितंबर 2022 को रखा जाएगा. इसका पारण (भोजन करके व्रत का समापन करना) 19 सितंबर 2022 को किया जाएगा. 19 सितंबर की सुबह 6.10 पर सूर्योदय के बाद व्रत का पारण किया जा सकता है.
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जितिया व्रत की कथा बड़ी रोचक है. मान्यतानुसार, एक नगर में किसी वीरान जगह पर एक पीपल का पेड़ था. इस पेड़ पर एक चील और इसी के नीचे एक सियारिन भी रहती थी. एक बार कुछ महिलाओं को देखकर दोनों ने जिऊतिया व्रत किया. व्रत के दिन ही नगर में एक इंसान की मृत्यु हो गई. उसका शव पीपल के पेड़ के स्थान पर लाया गया. सियारिन ये देखकर व्रत की बात भूल गई और उसने मांस खा लिया. चील ने पूरे मन से व्रत किया और पारण किया. व्रत के प्रभाव में दोनों का ही अगला जन्म कन्याओं अहिरावती और कपूरावती के रूप में हुआ. जहां चील स्त्री के रूप में राज्य की रानी बनी और छोटी बहन सियारिन कपूरावती उसी राजा के छोटे भाई की पत्नी बनी. चील ने सात बच्चों को जन्म दिया लेकिन कपूरावती के सारे बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे. इस बात से अवसाद में आकर एक दिन कपूरावती ने सातों बच्चों कि सिर कटवा दिए और घड़ों में बंद कर बहन के पास भिजवा दिया.
यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए और सभी के सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया. अगले ही पल उनमें जान आ गई. सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए. जो कटे सिर रानी ने भेजे थे, वे फल बन गए. जब काफी देर तक उसे सातों संतानों की मृत्यु में विलाप का स्वर नहीं सुनाई दिया तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी. वहां सबको जिंदा देखकर उसे अपनी करनी का पश्चाताप होने लगा. उसने अपनी बहन को पूरी बात बताई. अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था. भगवान जीऊतवाहन की कृपा से अहिरावती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं. वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं. कपुरावती की वहीं हताशा से मौत हो गई. जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया.
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