कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।
अर्थात्, संतान लायक या नालायक जो हो, पर मां ममता ही लुटाती है. औलाद की चाहे जो उम्र हो, उसे बच्चा ही मानती-दुलारती है. गजब जीव है वह! विचित्र धीरता-अधीरता है उसमें! धीरता ऐसी कि पुत्र-पुत्री की एक-से- एक गलती सह जाती है. स्वयं भूखी रह भरपेट खाना खाये बच्चों को और खिलाने की आदत-सी है उसमें. वहीं जब तनिक सर्दी-खांसी भी हुई, बुखार आया तो बेचैन हो आकाश-पाताल एक कर देती है. विषम परिस्थिति में अन्न-जल त्याग कर यमराज से भी लड़ने को तैयार रहती है. यदि जीवन का विनिमय करना हो तो विधाता से अपने बदले संतान का ही जीवनदान मांगती है. न जाने पंचतत्वों के कैसे सम्मिश्रण से बनी होती है माता!
भारतीय नारी जीवन के साथ परिवार जुड़ा रहता है. मायके से अधिक ससुराल का भार होता है. पारिवारिक सदस्यों की सलामती के लिए तो वह प्रयत्न-प्रार्थना करती ही रहती है, पति व सुहाग के लिए भी खूब तपस्या करती है, इसलिए तीज जैसे निर्जला व्रत करती है. गोद भरने के बाद उसका प्यार बंट जाता है. अब बच्चे के लिए कठिन-से-कठिन व्रतोपवास भी उठा लेती है और जान पर खेलकर उसकी लंबी आयु की कामना करती है. जो उसकी संतानों से प्रेम करता, उस पर सर्वस्व लुटाना भी जानती है और जो उनसे दुर्भाव रहे, उस पर प्रत्यक्ष व परोक्ष ही सही अप्रसन्न रहती है. इतना के बावजूद दैवयोग से जिस माता को पुत्रशोक भोगना पड़े, उस पर क्या बीतता है, वही जानती है.
जिसे गर्भ में पाला, उत्पन्न होने पर आंचल में रखा, अपने तन का रस पिलाया, बिस्तर गीला करने पर स्वयं गीली जगह जा-सोकर उसे सूखे में सुलाया, उसकी किलकारी में स्वर्गसुख पाया और रुलाई सुन कलप गयी, ऐसी करुणामूर्ति को कभी पुत्रमरण कब सह्य हो सकता है? लेकिन; कालगति कौन जानता है? फिर भी यदि कोई उपचार हो, तप हो, व्रत हो या त्याग हो, तो मां सब कुछ करना चाहेगी, ताकि संतान चिरायु हो. महाभारत युद्ध के अनंतर द्रौपदी के सभी पुत्र अश्वत्थामा द्वारा मारे गये. मां का हृदय विदीर्ण हो गया. वह पुरोहित धौम्य के पास पहुंची और मां के जीते जी पुत्रमरण का दुख न झेलना पड़े, इसका उपाय जानना चाहा. तब महर्षि धौम्य ने जीवत्पुत्रिका-व्रत की महिमा के साथ विधान बताया, जिसे जितिया, जिउतिया, जिताष्टमी आदि कहते हैं.
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महर्षि धौम्य ने द्रौपदी को एक मां की ही करुण कहानी सुनाते बताया कि सर्पाहारी गरुड ने सर्पों के सामने यह शर्त रखी कि नित्य एक को मेरे भोजन के लिए आना होगा, नहीं तो जिस-किसी को खाया करूंगा. तब किसी-न-किसी परिवार के एक सर्प को नियत स्थान पर जाना पड़ता. गरुड उसे खाकर चला जाता. एक दिन एक मां के इकलौते पुत्र की बारी थी. मां की तड़प बढ़ती जाती थी. कभी भीतर-भीतर, तो कभी जोरजोर से रोती- ‘हा हाsग्रे मम वृद्धायाः युवापुत्रो विनश्यति।’ संयोग से दयालु राजा जीमूतवाहन वहीं थे. उन्होंने जब आधी रात को यह करुण क्रंदन सुना, तो उन्हें सहा नहीं गया. तुरंत उस मां के पास पहुंच कारण जाना. फिर उसके बेटे को रोक स्वयं गरुड के पास भोजन बन चले गये. जब गरुड एक बगल का मांस खा चुका, तो करवट बदल दूसरा भाग परोस दिया. इस पर आश्चर्य हो पक्षिराज ने परिचय जानना चाहा, तो उन्होंने बताया-
जननी मम शैव्यास्ति पिता मे शालिवाहनः।
सूर्यवंशोद्भवः चाहं राजा जीमूतवाहनः।।
अर्थात्; मेरी मां शैव्या है, पिता शालिवाहन हैं तथा मैं जीमूतवाहन राजा हूं. मेरा जन्म सूर्यवंश में हुआ है. उनकी दयालुता से प्रसन्न गरुड ने उन्हें चंगा कर वर मांगने को कहा. तब उन्होंने वरदान मांगा कि अब तक आपने यहां के जिन सर्पों को खाया है, उन्हें जिंदा करें, फिर इन्हें कभी न खाएं. सभी माताओं की संतानें चिरंजीवी हों. पक्षिराज ने ‘तथास्तु’ कहकर अमृत का छिड़काव कर जीवित किया. राजा का परोपकार देख गरुड प्रसन्न हो बोले कि आज आश्विन कृष्ण अष्टमी तिथि है. इसकी स्वामिनी दुर्गा ही जीवपुत्रिका हैं. जो नारी जीवपुत्रिका के साथ आप, जीमूतवाहन की कुशमय मूर्ति बनाकर पूजा करेगी, उसकी सौभाग्य और वंश की वृद्धि होगी.
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प्रायः पौराणिक कथाओं में विधान के साथ प्रमाण भी उपस्थापित रहता है. तदनुसार द्रौपदी ने पुरवासी स्त्रियों के साथ यह व्रत किया, फिर और स्त्रियां भी करने लगीं. संतान तो हर जीव को प्रिय होती है, इसलिए इसका माहात्म्य जान एक मादा चील ने अपनी सखी सियारिन को बताया. दोनों ने व्रतारंभ किया, पर चील ने नियम-पालन किया. वहीं सियारिन श्मशान जाकर चुपके मांस खा आयी. परिणाम से दोनों अगले जन्म में सगी बहनें हुईं. आगे सियारिन काशिराज से तथा चील का उन्हीं के मंत्री से ब्याही गयी. कर्मफल तो भोगना ही पड़ता है. इस कारण रानी के जो बच्चे होते, मर जाते.
वहीं मंत्री पत्नी के आठ बच्चे हुए. सभी चंगे रहे. ईर्ष्यावश राजपत्नी ने मंत्री पुत्रों को मरवा डालने को कहा. वशी राजा ने वैसा ही किया. मंत्री पुत्रों का सिर कटवाकर आठ झपोलियों में मंत्री पत्नी के पास भेजा, परंतु जिउतिया व्रत के प्रभाव से वे आठों सिर रत्न बन गये तथा सभी पुत्र पुनः यथावत् जीवित एवं स्वस्थ घर आये. यह सुन राजा-रानी विस्मय में पड़ गये. रानी ने बहन से कारण जानना चाहा, तो उसने पूर्वजन्म के कृत्य बताया. इसके बाद रानी ने भी यह व्रत करना शुरू किया. आगे उसके कई चिरंजीवी पुत्र हुए, जो राजा भी बने.
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विधान के अनुसार, अष्टमी को व्रत एवं नवमी को पारण करना है, परंतु जिउतिया से संबंधित दो कथाएं हैं. दोनों में सारतः एकता है. हां, मुख्य अंतर यह है कि एक में चंद्रोदय में अष्टमी (शनिवार, 17 सितंबर) का महत्व है, तो दूसरी में सूर्योदय में अष्टमी (रविवार, 18 सितंबर) को ग्राह्य और सप्तमीविद्धा अष्टमी त्याज्य है.
अष्टमी तिथि : शनिवार, 17 सितंबर को दोपहर 2:56 से रविवार, 18 सितंबर को शाम 4:39 बजे तक. उपरांत नवमी तिथि सोमवार, 19 सितंबर को शाम 6:37 बजे तक.
पारण : मिथिला पंचांग के अनुसार, रविवार, 18 सितंबर को शाम 4:39 बजे के बाद. वहीं वाराणसी पंचांग के अनुसार, सोमवार, 19 सितंबर को सूर्योदय के बाद कभी भी.