पूर्णिया. सीमांचल के पूर्णिया जिले में जूट आधारित उद्योग लगाए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी है. यह माना जा रहा है कि जूट आधारित उद्योग लगाये जाने से न केवल लुप्त होते कैशक्रॉप में जान आ जायेगी बल्कि जूट उत्पादक किसानों को उनकी उपज का वास्तविक मूल्य भी मिल पायेगा. हालांकि इस साल भी जूट की खेती की गई है पर उचित दाम नहीं मिलने के कारण रकवा कम हो गया है क्योंकि लागत मूल्य नहीं मिल पाने के कारण जूट की खेती से किसान विमुख हो रहे हैं.
सीमांचल के किसानों का प्रमुख कैश क्रॉप रहा है जूट
बनमनखी चीनी मिल बंद होने के बाद जूट सीमांचल के किसानों का प्रमुख कैश क्रॉप बन गया. मगर, यहां जूट मिल नहीं होने के कारण किसानों को उसका लागत मूल्य भी नहीं मिलता. जूट की कीमत पर शुरू से ही बंगाल का एकाधिकार रहा है. नतीजतन किसानों को उतनी ही कीमत मिलती है जो बंगाल के जूट मिलों के मालिक तय करते हैं. अस्सी के दशक में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने किशनगंज एवं फारबिसगंज में जूट मिल खोलने की पहल जरुर की थी पर वे शुरू नहीं हो सकीं जबकि कटिहार जूट मिल भी प्रबंधकीय विसंगतियों के कारण बंद हो गई.
कई दशकों से हो रही जूट मिल की मांग
यही वजह है कि पूर्णिया में जूट मिल और जूट आधारित उद्योग खोले जाने की मांग पिछले कई दशकों से होती आ रही है. पोखरिया के किसान दाउद आलम कहते हैं कि मक्का के दाम में गिरावट देख उन्होंने इस बार जूट की भी खेती की है पर जब तक जूट पर आधारित उद्योग यहां नहीं होगा तब तक उचित मूल्य मिल पाना मुश्किल है क्योंकि बंगाल के जूट उद्यमी बिहार के किसानों का शोषण करते हैं. जूट उत्पादक किसान जनार्दन त्रिवेदी कहते हैं कि जूट पूर्णिया के किसानों का पुराना कैश क्रॉप है जिसके बल पर किसान बड़ा से बड़ा काम कर लेते हैं. श्री त्रिवेदी का कहना है कि जूट और मक्का दोनों का उद्योग लग जाए तो दोनों फसलों के मूल्य से किसानों की खेती और खर्च का संतुलन बना रहेगा.
उत्पादन की नई तकनीक का मिले प्रशिक्षण
जिले के जूट उद्यमियों का मानना है कि पूर्णिया में न केवल जूट आधारित उद्योग की जरुरत है बल्कि किसानों को जूट उत्पादन की नई तकनीक का प्रशिक्षण भी अनिवार्य है. उद्यमियों की मानें तो अभी जिस क्वालिटी का जूट उत्पादन हो रहा है, बंगाल में उसकी कीमत कम लगायी जाती है. बंगाल और इससे सटे बांग्लादेश के खेतों से निकलने वाले जूट की चमक अपेक्षाकृत काफी अधिक होती है जिससे उसके दाम अधिक मिलते हैं. उद्यमियों की मानें तो यहां जूट के डंठल को गलाने और उसका रेशा निकाले जाने की नई तकनीक का विकास जरुरी है और इसके लिए साधन मुहैया कराये जाने के साथ प्रशिक्षण भी जरुरी है.
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कहते हैं जूट उत्पादक
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1. पंकज प्रसाद: कृषि विभाग द्वारा जूट उत्पादकों को प्रशिक्षण मिलना चाहिए. दूसरे राज्यों में नई तकनीक पर खेती हो रही है. अहम यह है कि जूट पर आधारित उद्योग लगाया जाना चाहिए जिससे वे सीधे बेच पाएंगे और तब जूट का उचित दाम मिलना संभव होगा.
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2. रजनीश कुमार: हम कड़ी मेहनत से जूट उपजाते हैं. घर की पूरी पूंजी लगा देते हैं. खाद और सिंचाई में भी कमी नहीं करते पर जब बाजार में बेचने जाते हैं तो इसकी क्वालिटी खराब बता कर कम दाम लगाया जाता है. क्वालिटी सुधार के लिए उचित पहल बहुत जरुरी है.
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3. खगेश प्रसाद: फसल को काटने के बाद उसे पानी में गलाया जाता है और तब रेशा निकाला जाता है. सड़न ताल के अभाव में हम लोग किसी गड्ढे में जमा गंदा पानी में ही डाल देते हैं. इससे जूट का रेशा काला पड़ जाता है जबकि इसे खूब चमकना चाहिए.
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4. मनोज प्रसाद: अभी पुराने तरीके से जूट की खेती करते हैं. नई तकनीक के बारे में कुछ साल पहले सुने थे पर वह उपलब्ध नहीं है. इस स्थिति में किसानों को प्रशिक्षण जरुरी है और नई तकनीक को गांव-गांव तक पहुंचाया जाना चाहिए जिससे क्वालिटी अच्छी हो.
आंकड़ों पर एक नजर
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38 हजार 8 सौ रुपये का खर्च एक एकड़ की खेती में है
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08 क्विंटल का उत्पादन होता है एक एकड़ में
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30 से 35 हजार तक मिलते है बाजार में दाम
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7000 से 8000 रुपये प्रति क्विंटल का रेट 2021 में
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4200 से 4800 रुपये प्रति क्विंटल है खुदरा बाजार का दर
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1 लाख 20 हजार हैक्टेयर में कोशी-पूर्णिया में होती है जूट की खेती