दुर्गावती. प्रखंड क्षेत्र की चेहरिया प॓ंचायत के रोहुआकलां गांव में प्राथमिक विद्यालय नहीं होने से यहां के छोटे-छोटे बच्चों को दो किलोमीटर की दूरी तय कर निजी स्कूल या दूसरे पंचायत में स्थित प्राथमिक विद्यालयों में जाना पड़ता है. लगभग 77 घरों वाले इस गांव में करीब 400 सौ मतदाता हैं. लेकिन शिक्षा की बुनियादी व्यवस्था सुदृढ़ नहीं हो सकी है. गांव में विद्यालय नहीं होने से गांव के कुछ बच्चे-बच्चियां पढ़ने नहीं जाते हैं. वही, सरकार द्वारा शिक्षा व्यवस्था को बेहतर करने के दावे तो बहुत किये जाते हैं, लेकिन इस गांव में प्राथमिक शिक्षा की भी हालत बेहद खराब है. यहां के लोग बच्चों को पढ़ाना तो चाहते हैं, लेकिन गांव में विद्यालय नहीं होने से यहां के कमजोर वर्गों के लोगाें के सपनों को पंख नहीं लग पा रहे हैं. इस गांव में शिक्षा के नाम पर आंगनबाड़ी केंद्र तो चलता है, लेकिन आंगनबाड़ी का भी अपना स्थायी भवन नहीं है. इससे कभी 10- 15 दिन इनके दरवाजे, तो कभी उनके दरवाजे या किसी अन्य जगह अस्थायी रूप से किसी तरह चलता है. ऐसे में आज यहां कल वहां के तर्ज पर चल रहे आंगनबाड़ी सेंटर के चलते बच्चे अभिभावक व सेंटर संचालिका को भी काफी परेशानी झेलनी पड़ती है. वहीं, ग्रामीण संजय सिंह, सोनू गुप्ता, संतोष सिंह आदि कहते हैं कि अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों द्वारा वर्षों से यहां विद्यालय बनवाने का आश्वासन मिलता रहा है. लेकिन, आजादी के बाद से ही यहां स्कूल नहीं बन पाया, जबकि यहां सरकारी भूमि भी उपलब्ध है. ## क्या कहते हैं ग्रामीण – रोहुआकलां गांव के 58 वर्षीय श्याम नारायण कहते हैं कि प्राथमिक विद्यालय नहीं होने से यहां के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए भी लगभग दो किलोमीटर दूरी तय कर धरहरा अथवा चेहरिया बाजार या फिर खामीदौरा पंचायत के रोहुआ (खुर्द) गांव के विद्यालय में जाना पड़ता है, ऐसे में जब तक बच्चे लौट कर घर नहीं आ जाते हैं, तब तक बच्चों के घर आने तक चिंता बनी रहती है. जबकि, यहां सामुदायिक भवन भी नहीं बना है. इससे शादी विवाह जैसे अवसर पर भी परेशानी झेलनी पड़ती है. आंगनबाड़ी का अपना स्थायी भवन नहीं होने से भी बच्चों को काफी परेशानी होती है. समय रहते शासन- प्रशासन का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया गया है. – गांव के ओमप्रकाश खरवार कहते हैं कि गांव में प्राथमिक विद्यालय नहीं होने से छोटे छ-टे बच्चों को मुख्य सड़क से काफी दूर तक जाना पड़ता है, जिससे हमेशा दुर्घटना की भी आशंका बनी रहती है. बच्चों को पढ़ाना है इसलिए विवश हैं. बच्चे जब तक वापस नहीं आ जाते तब तक चिंता बनी रहती है और बच्चों के इंतजार में ही पूरा दिन बीत जाता है. अगर गांव में स्कूल होता तो बच्चों को पढ़ाई में आसानी होती, लेकिन अब तक इस गांव में सरकारी प्राथमिक स्कूल नहीं है. इसके लिए प्रयास भी किया गया, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया. ## कहती हैं आंगनबाड़ी सेविका इस गांव में कोड संख्या 92 के नाम से चल रहे आंगनबाड़ी केंद्र की सेविका मंजू मिश्रा कहती हैं कि यहां आंगनबाड़ी के लिए स्थायी रूप से कोई जगह नहीं मिल रही है. लाचार व विवश होकर दो-चार महीना कभी इनके दरवाजे, तो कभी उनके दरवाजे पर बच्चों को पढ़ाने का कार्य किया जाता है. ऐसे में व्यर्थ के भाग दौड़ से काफी परेशानी झेलनी पड़ती है.
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