खेतों में पराली जलाये जाने से कैमूर में भी बढ़ने लगा खतरनाक स्तर तक प्रदूषण
देश की राजधानी दिल्ली सहित कई शहरों व महानगरों में पिछले दिनों से बढ़ रहे प्रदूषण को खतरनाक स्तर तक पहुंचाने में बड़ी वजह खेतों में धान के पौधों के अवशेष जलाने की प्रक्रिया को बताया जा रहा है. इ
भभुआ सदर. देश की राजधानी दिल्ली सहित कई शहरों व महानगरों में पिछले दिनों से बढ़ रहे प्रदूषण को खतरनाक स्तर तक पहुंचाने में बड़ी वजह खेतों में धान के पौधों के अवशेष जलाने की प्रक्रिया को बताया जा रहा है. इधर, धान की कटाई के बाद कैमूर जिले में भी खेतों में बचे डंठल को जिले के किसान खेतों में जला रहे हैं. इससे जिले में भी प्रदूषण खतरनाक स्तर तक बढ़ गया है. इधर, पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि डंठल जलाना तो आसान है, लेकिन इससे खेतों की जान निकल रही है. इसका खामियाजा आम लोगों सहित किसानों को भी भुगतना पड़ रहा है और इसके चलते किसानों को भी हर साल खाद की मात्रा बढ़ानी पड़ रही है. ऐसे ही चलता रहा तो आनेवाली पीढ़ी को बीमार और बंजर खेत ही नसीब होंगे, जहां कोई भी फसल उपजाना बेहद मुश्किल होगा. इधर, डंठल या पराली जलाने को लेकर बिहार सरकार भी सख्त है और इसपर कड़े कानून बनाये है, लेकिन किसान हैं कि मान नहीं रहे और धड़ल्ले से खेतों में पराली जलाये जा रहे हैं. जिला कृषि विज्ञान केंद्र की जांच में भी पराली जलाने से खेतों को हो रहे नुकसान की भयावह स्थिति का पता चला है, विशेषज्ञों की माने तो जिन खेतों में डंठल जलाये जा रहे हैं, उन खेतों को फिर से फसल के लायक उर्वरा बनाने के लिए उनकी मिट्टी में उपचार ज्यादा करना पड़ रहा हैं. सरल भाषा में कहें तो वैसे खेत वाले फसलों को ज्यादा खाद-पानी की आवश्यकता पड़ रही हैं. हालांकि, किसान जरा सी समझदारी बरते तो यह स्थिति बदल सकती है. जहां खेतों की मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार होगा. वहीं, महंगे रसायनिक उर्वरकों के खर्च से भी वे बचेंगे. कृषि वैज्ञानिक अमित कुमार का मत है कि खेतों में डंठल जलाने से पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचता है. कृषि वैज्ञानिक का कहना है कि फसल की कटाई किये जाने के बाद बचे अवशेषों को खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, अवशेषों को खाद के रूप में प्रयोग से पर्यावरण को स्वस्थ रखने में मदद मिलेगी. खेतों में डंठल जलाने में विशेष बात यह है कि खर-पतवारों को आग में नष्ट किये जाने के बाद खेतों की उर्वरा शक्ति भी घटती है. इधर, खेतों में डंठल जलाये जाने से जिले के आसमान पर भी धुंध छाये रह रहे हैं और प्रदूषण भी खतरनाक स्तर पर जा पहुंचा है. = अगलगी का भी रहता है खतरा पिछले साल जिले में खलिहान में रखी फसलों के जलने की कई घटनाएं हुई. अधिकांश मामलों में अगलगी की घटना पराली जलाने की वजह से मानी गयी. जलते डंठलों से निकली चिंगारी से कई किसानों के खलिहान में आग लग गयी, जिससे उन्हें काफी आर्थिक क्षति उठानी पड़ गयी. जिले के किसान मुन्ना सिंह, बाल्मीकि पांडेय, अनिल राम आदि बताते हैं कि खेतों में पराली (धान का डंठल) जलाने से पर्यावरण को नुकसान के साथ किसानों को आर्थिक नुकसान भी झेलना पड़ता है. गांव में किसी एक किसान की गलती का खामियाजा दूसरे को भी भुगतना पड़ता है, परंतु कानून के लचर होने से किसानों को ऐसा करने से सारी हकीकतों के जानने के बाद भी इस तरह के कुकृत्य करने से रोका नही जा रहा है. = क्या कहते हैं विशेषज्ञ कृषि विज्ञान केंद्र के मृदा विशेषज्ञ डॉ दिनेश सिंह का कहना है कि फसल अवशेषों को जलाये जाने से न केवल मिट्टी की उर्वरा शक्ति में कमी आती है, बल्कि इससे निकलने वाला धुआं पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहा है. वे लोग गांवों में जाकर इससे हो रहे नुकसान के बारे में किसानों को जागरूक करते हैं, लेकिन, किसान जागरूकता की ओर बढ़ने के बावजूद खेतों में डंठल जलाने से बाज नहीं आ रहे हैं. = क्या हो रहा हैं नुकसान – वातावरण में कार्बन डाइआक्साईड की मात्रा बढ़ रही है. – मिट्टी का तापमान बढ़ जाता है – लाभदायक जीवाणु मर जाते हैं – खेत की उर्वरा शक्ति घट जाती है – फसल उत्पादन क्षमता प्रभावित होती है – अवशेष जलाना टिकाऊ खेती के विपरीत है – भूसा के जलाव से पशुधन प्रभावित होता है -डंठल नहीं जलाने से क्या होगा लाभ – डंठल मिट्टी में सड़कर उसकी उर्वरा शक्ति को बढ़ायेगा – पाले, लू जैसे प्राकृतिक प्रकोपों से बचाव होगा – नमी के संरक्षित रहने से सिंचाई कम करनी होगी – मृदा संरचना में सुधार व जल उपयोग की क्षमता में वृद्धि होगी.
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