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कोढ़ा में विलुप्त होने के कगार पर दलहन की खेती

किसान खेती से हो रहे विमुख

कोढ़ा . कोढ़ा प्रखंड क्षेत्र में पच्चीस तीस वर्षों से दलहन की खेती सीमट रहे होने के कारण क्षेत्र में दलहन की खेती विलुप्त होने के कगार पर है. अब महज कुछ ही दलहनों की खेती हो रही है. क्षेत्रफल का दायरा और दिनों दिन घटता जा रहा है. जानकार बताते हैं पचीस- तीस साल पहले जब क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की दलहन मसलन अरहर, मसूर, चना, खेसारी, मटर, कलाय, मूंग, कुर्थी, टीसी, बाकस आदि की खेती भारी पैमाने पर होती थी. गांव ग्राम के बच्चे युवा चना, खेसारी का ओढ़ा व मटर की छिमरी का लुत्फ उठाने के लिए पिकनिक के तौर पर बच्चे व युवाओं की टोली जाया करता था. बहियार में दलहन अफराद होता था. आपसी प्रेम भी इतनी थी कि किसान कुछ बोलते नहीं थे. बल्कि शौक से बच्चे और युवाओं को ओढ़ा खिलाते थे. तब दलहन का स्थानीय उत्पादन का आयात गुलाबबाग व हरदा में हुआ करता था. दलहन की कीमत इतनी सस्ती थी कि हर थाली में दाल हुआ करता था. कम पैदावार के कारण दलहन के कीमती ऐसी सस्ती है कि लोगों की थाली से गायब तो नहीं मगर मात्रा कम हो गई है. वर्तमान में दलहन के संसार में विशेष स्थान प्राप्त अरहर दाल की कीमत 165 रूपये किलो है तो चना एक सौ रूपये व मसूर 88 से 90 रुपया किलो, मूंग दाल 120 रुपया किलो, कुर्थी 80 से 85 और टेस्टी दाल कलाई 100 किलो मटर दाल 80 रुपया किलो, मूंग दाल 120 रुपया किलो है. क्षेत्र से अरहर की खेती लगभग नहीं के बराबर रह गया है. मसूर, मूंग, मटर कम पैमाने पर खेती की जाती है. प्रखंड क्षेत्र के किस अरुण कुमार, जितेंद्र मंडल, पुलकित मेहता, रंजन, अरमान, अशफाक आदि बताते हैं कि कि चालीस साल पहले क्षेत्र में वृहद पैमाने पर सभी प्रकार के दलहन की खेती होती थी. अच्छी उपज होने के कारण किसान अपने घर के लिए साल भर का दाल रखकर शेष बेच लिया करते थे. जैसे ही क्षेत्र में केला खेती का पदार्पण हुआ तो दलहन की खेती का दायरा सिमटता चला गया. जो नग्न की स्थिति में आ पहुंचा है. हालांकि केला खेती को भी पनामा बिल्ट नामक रोग का ग्रहण लग गया.

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