विश्व हिन्दी दिवस पर विशेष: नई पीढ़ी को हिंदी के महत्वों की समझने की है जरूरत
विश्व हिन्दी दिवस पर विशेष: नई पीढ़ी को हिंदी के महत्वों की समझने की है जरूरत
कटिहार आज विश्व हिंदी दिवस है, वही हिंदी जो हमारी मातृभाषा है, जो जनभाषा है. जो हमारे सपनों की भाषा है, वही जो हमें संस्कारित करती है. दुनिया की दूसरी भाषा सीख भी लें तो हिंदी बोलने में एक अलग-सा अपनापन है. केबी झा कॉलेज के सहायक आचार्य, हिंदी विभाग के डॉ जितेश कुमार का कहना है कि यदि गुस्सा या क्रोध हो, तो लोग विदेशी बोलते हैं. लेकिन प्यार जताने के लिए हिंदी ही काफी है. हिंदी भाषा की बढ़ती लोकप्रियता ही है कि हमारा साहित्य अब वैश्विक स्तर पर पुरस्कृत हो रहा है. विश्व के हर कोने में हिंदी भाषी अपने कार्यों को लेकर जाने जा रहे हैं. भारत में उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक हिंदी का अपनापन बिखरा हुआ है. यह बात बहुत पुरानी हो चुकी है कि हिंदी अब विश्व के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है. आज हिंदी की शब्द संपदा लगातार बढ़ती जा रही है. इससे भाषिक स्तर पर हिंदी मजबूत हो रही है. रोजगार या अवसर की चिंता अब हिंदी के लिए दूर की बात है. इतनी उन्नति और खुशियों के बीच हिंदी को लेकर कुछ दुखद पहलू भी हैं, जो हमें निराश करती हैं. जहां विश्व हिंदी को सीखने पर विवश है. वहीं हमारी भारतीय पीढ़ी हिंदी को लेकर ज्यादा उत्सुक और समर्पित नहीं हैं. उन्हें हिंदी की लिपि देवनागरी की शुद्धता पर भी ध्यान देना जरूरी नहीं रह गया है, वे हिंदी भी रोमन में लिखकर गौरव का बोध कर रहे हैं. क्या प्रेमचंद, प्रसाद, द्विवेदी, दिनकर, भारतेंदु आदि ने इसी हिंदी की परिकल्पना की थी. क्या भारत सरकार इसी हिंदी को प्रोत्साहित कर रही है. क्या इससे हिंदी का भला हो रहा है. हिंदी की जड़ें यद्यपि पाताल तक गहरी हैं लेकिन कुछ भाषाओं के द्वारा इसे उखाड़ने की व्यर्थ चेष्टा सही नहीं है. हमारी पीढ़ी को हिंदी भीतर तक आनंदित करती है लेकिन व्यावहारिक रूप से उन्हें सही-गलत के बीच अंतर करना नहीं आता, हिंदी के आंदोलन अभी भी चलाए जा रहे हैं. लेकिन इसकी आवश्यकता अब नहीं है. अब हिंदी हमारा स्वाभिमान है इसका बोध जरूरी है. हम ऐसे दौर में हैं जब प्रतिदिन दुनिया की 8 बोलियां मरती जा रही हैं. उस दौर में हिंदी की जीवंतता के लिए हमारा नैतिक समर्पण अति आवश्यक है. भारतीय विद्यालयों में पढ़ती नई पौध को भी हिंदी बोलने की आजादी हो, हिंदी लिखने की आजादी हो तो निश्चित ही हिंदी के हिस्से रोने के किस्से कम होंगे. हिंदी तो हमारी है,लेकिन हम हिंदी के कब होंगे.
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