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बिहार में 36 साल पहले आज ही के दिन हुआ था भारत का सबसे बड़ा रेल हादसा

आयुष कुमार की रिपोर्ट खगड़िया : 6 जून 1981 यानि आज से ठीक 36 साल पहले का वक्त जिसे याद करने के बाद आज भी रूह कांप जाती है. जी हां यह देश का सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेल हादसा है, जिसमें करीब सैकड़ों लोग काल के गाल में समा गये. […]

आयुष कुमार की रिपोर्ट

खगड़िया : 6 जून 1981 यानि आज से ठीक 36 साल पहले का वक्त जिसे याद करने के बाद आज भी रूह कांप जाती है. जी हां यह देश का सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेल हादसा है, जिसमें करीब सैकड़ों लोग काल के गाल में समा गये. वह मनहूस दिन जब मानसी से सहरसा की ओर जा रहे यात्रियों से खचाखच भरी नौ डिब्बों की एक ट्रेन जिसमें सभी यात्री अपने अपने कामों में व्यस्त थे. कोई बात करने में मशगूल था तो कोई मूंगफली खा रहा था. कोई अपने रोते बच्चों को शांत करा रहा था तो कोई उपन्यास बढ़ने में व्यस्त था. इसी वक्त अचानक से ट्रेन हिलती है. यात्री जब तक कुछ समझ पाते तब तक पटरी ट्रैक का साथ छोड़ते हुए लबालब भरी बागमती नदी में जल विलीन हो जाती है.

कैसे हुआ था हादसा

आज से ठीक36 वर्ष हुए भारत के सबसे बड़े रेल दुर्घटना के कारणों पर यदि गौर करें तो इस रेल दुर्घटना से जुड़ी दो थ्योरी हमेशा से प्रमुखता से लोगों के बीच चर्चा का विषय बनी रही. घटना से जुड़ी थ्योरी यह है कि छह जून 1981 दिन शनिवार की देर शाम जब मानसी से सहरसा ट्रेन जा रही थी तो इसी दौरान पुल पर एक भैंस आ गया जिसे बचाने के लिए ड्राइवर ने ब्रेक मारी पर बारिश होने की वजह से पटरियों पर फिसलन की वजह से गाड़ी पटरी से उतरी और रेलवे लाइन का साथ छोड़ते हुए सात डिब्बे बागमती नदी में डूब गये.

जबकि इस एक्सीडेंट से जुड़ी दूसरी थ्योरी यह है कि पुल नंबर 51 पर पहुंचने से पहले जोरदार आंधी और बारिश शुरू हो गयी थी. बारिश की बूंदे खिड़की के अंदर आने लगी तो अंदर बैठे यात्रियों ने ट्रेन की खिड़की को बंद कर दिया. जिसके बाद हवा का एक ओर से दूसरी ओर जाने के सारे रास्ते बंद हो गये और तूफान के भारी दबाव के कारण ट्रेन की बोगी पलट कर नदी में जा गिरी. हालांकि घटना के काफी वर्ष बीत जाने के बाद जब प्रभात खबर की टीम घटना स्थल के आस पास के गांव का दौरा करने पहुंची तो अधिकतर गांव वालों ने दूसरी थ्योरी को जायज बताते हुए बताया कि तेज आंधी में यात्रियों द्वारा खिड़की बंद करना घातक साबित हुआ.

काल के गाल में समा गये थे सैकड़ों यात्री
6 जून 1981 का वह मनहूस दिन जब मानसी से सहरसा की ओर जा रही 416 डाउन ट्रेन की लगभग सात बोगियां नदी के गहराई में समा गयी. जिस वक्त यह हादसा हुआ उस वक्त ट्रेन यात्रियों से खचाखच भरी थी. ट्रेन की स्थिति ऐसी थी कि ट्रेन के छत से लेकर ट्रेन के अंदर सीट से पायदान तक लोग भरे हुए थे. उस दिन लगन भी जबरदस्त था और जिस वजह से उस दिन अन्य दिनों के मुकाबले यात्रियों की भीड़ ज्यादा थी. मानसी तक ट्रेन सही सलामत यात्रियों से खचाखच भरी बढ़ रही थी. शाम तीन बजे के लगभग ट्रेन बदला घाट पहुंचती है. थोड़ी देर रुकने के पश्चात ट्रेन धीरे-धीरे धमारा घाट की ओर प्रस्थान करती है.

ट्रेन कुछ ही दूरी तय करती हैं कि मौसम खराब होने लगता है और उसके बाद तेज आंधी शुरू जाती है. फिर बारिश की बूंदे गिरने लगती है और थोड़ी ही देर में बारिश की रफ्तार बढ़ जाती है. तब तक ट्रेन रेल के पुल संख्या 51 के पास पहुंच जाती है. इधर, ट्रेन में बारिश की बूंदे आने लगती है और यात्री फटाफट अपने बोगी की खिड़की को बंद कर लेते है. तब तक ट्रेन पुल संख्या 51 पर पहुंच जाती है. पुल पर चढ़ते ही ट्रेन एक बार जोर से हिलती है. ट्रेन के हिलते ही ट्रेन में बैठे यात्री डर से कांप उठते है. कुछ अनहोनी होने के डर से ट्रेन के घुप्प अंधेरे में ईश्वर को याद करने लगते है. तभी एक जोरदार झटके के साथ ट्रेन ट्रैक से उतर जाती है और हवा में लहराते हुए धड़ाम से बागमती नदी से टकराती है.

खुद भी बचे, दूसरो को भी बचाया
जाको राखे साइयां, मार सके ना कोई यह कहावत देश की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना में मौत के मुंह से निकले धमारा घाट के दो भाइयो पर पूरी तरह से लागू होती है. उम्र के अंतिम पायदान पर पहुंच चुके इन दोनों भाइयो से आज भी दूर-दूर से लोग मिलने आते है. मौत को मात देकर जिंदगी जीने वाले ये दोनों भाई जीवन के आखिरी पायदान पर है. पूर्व मध्य रेलवे अंतर्गत सहरसा-मानसी रेलखंड के धमारा घाट स्टेशन से पूरब बंगलिया गांव के एक छोटी-सी कुटिया में जीवन गुजर-बसर कर रहे बहादुर सिंह और बनारसी सिंह को जिंदगी भी मौत के मुंह से छीनकर मिली है.

देश की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना जिसमे सैकड़ो लोगो ने अपनी जिंदगी गंवा दी, उस भीषण दुर्घटना में दोनों भाइयो की मिली जिंदगी ईश्वरीय देन से कम नही.दुर्घटना में बचे सत्तर वर्षीय बहादुर सिंह लड़खड़ाई जुबान से प्रभात खबर को उस दिन की पूरी कहानी बताते है.

दुर्घटना वाले दिन सुबह-सुबह मैं और मेरा भाई बनारसी सिंह बदला बाजार करने गये थे, दिन भर बाजार करने के बाद शाम को ट्रेन पकड़ने बदला घाट स्टेशन पहुंचे. वहां हमारी मुलाकात मेरे पड़ोसी गंगा से हुई. लोटे में रसगुल्ले लिए खुशी से लबरेज गंगा ने बताया कि बेटी के शादी के लिए कुटुंब देखने आया था, बात पक्की हो गयी है इसलिए घरवालों के लिए मिठाई लेकर जा रहा हूं. उससे बातचीत चल ही रही थी कि 416 डाउन पैसेंजर ट्रेन बदला घाट स्टेशन पर आकर रुकी. ट्रेन में भीड़ ज्यादा थी, खचाखच यात्रियों से भरी ट्रेन में हम दोनों भाई और हमारा पड़ोसी गंगा बमुश्किल यात्रियों के बीच से होते हुए सीट तक पहुंचे.

सीट खाली नहीं थी इसलिए सीट के ऊपर लगे लकड़ी के फट्टे पर मैं बैठ गया, वही मेरा भाई और गंगा भीड़ में ही यात्रियों के बीच खड़ा रहा. ट्रेन स्टेशन से खुल कर थोड़ी दूर बढ़ी ही थी कि तेज आंधी शुरू हो गयी. आंधी की रफ्तार अन्य दिनों की अपेक्षा ज्यादा थी. थोड़ी ही देर में बारिश भी पड़ने लगी. डिब्बों के अंदर बारिश की बूंदे आने लगी तो यात्रियों ने धड़ाधड़ बोगी के सभी खिड़कियां बंद करनी शुरू कर दी. वहीं तेज आंधी रुकने का नाम नही ले रही थी जिससे डिब्बे के गेट पर खड़े यात्रियों को खासी परेशानी हो रही थी.

इसी बीच किसी ने डिब्बे के गेट को बंद करने को कहा तो गंगा ने जोर से गेट बंद कर रहा हूं बोल कर गेट बंद कर दिया. जबकि, डिब्बे के अन्य गेट शायद खुले थे. तभी गाड़ी जोर से हिलती है, हम सभी यात्रियों का अंदेशा हो गया कि कुछ बुरा होने वाला है. मैने अपने भाई को कहा कि बनारसी, शायद ट्रेन पलट जायेगी. बनारसी यह सुन स्तब्ध था. इसी बीच अचानक जोर से हिलते हुए ट्रेन पलट गयी…..मेरी आंख पानी में खुली. चूंकि, मुझे तैरना आता था तो मैने आंख खुलते ही तैरना शुरू किया.

जब मुझे लगा कि मैं संभलने वाली स्थिति में हूं तो मैने बनारसी और गंगा को आवाज दी. परंतु बागमती के उस जल से गंगा की तो आवाज नही आई परंतु हे हो भईया कहता बनारसी की आवाज कानो में गूंजी. मै चौक गया और इधर-उधर देखने लगा, तब तक बनारसी ने आकर मेरे पीठ को पकड़ लिया. धीरे-धीरे हम तैरने लगे. बनारसी ने मुझसे पूछा कि भैया, हम बच तो जायेंगे. मैने इसे ढाढ़स बंधाते हुए बताया कि जरूर बचेंगे. तब तक कई और पानी में हल्का-हल्का तैरते-तैरते हमारे पास पहुंच गये.

सभी को साथ लिए मैं किनारे पर पहुंचा. बनारसी को कई जगह चोट लगी थी और कई जगह से खून बह रहा था, इसलिए थोड़ी देर बाद उसे प्रशासन की सहायता से खगड़िया अस्पताल में भर्ती कराया गया. मुझे भी शरीर में कई जगह चोट लगी थी पर मेरा दिमाग गंगा पर था, लग रहा था कही से भी वह आवाज दे दे की मैं बागमती में कूद कर उसे बचा लूं. वर्तमान में बहादुर सिंह और बनारसी सिंह जीवन के अंतिम पायदान पर है. बहादुर सिंह अपने दस पोता और सात पोती के संग जिंदगी जी रहे है. वही बनारसी सिंह को एक पोता और एक पोती है जिसे पुचकारते उनकी दिन और रात गुजरती है.

हादसे ने छीन लिया पूरा परिवार, मिट्टी भी नही हुआ नसीब
छत्तीस साल पूर्व हुए भीषण रेल हादसे ने वैसे तो कई घरों के चिरागों को बुझा दिया परंतु इस हादसे ने कई हंसते-खेलते परिवारो को भी खत्म कर दिया. ऐसा ही एक परिवार बिहार के सहरसा में है जिसके ग्यारह सदस्य इस घटना में काल के मुंह में समा गये. बिहार के सहरसा जिला अंतर्गत सिमरी बख्तियारपुर के मियां चक में स्थित एक खंडहरनुमा घर भारत के सबसे बड़े रेल हादसे से मिले जख्म का परिणाम है.

प्रभात खबर की टीम जब इस गांव में पहुंची तो सबसे पहले टीम ने घर का निरीक्षण किया.पूरी तरह खंडहर में तब्दील यह घर किसी भूतहा हवेली से कम नही लग रहा था. पुरे घर में यत्र-तत्र बिखरा सामान, हर जगह उगे जंगली पौधे, टूटा छप्पर आदि इस घर की बर्बादी को खुली किताब की तरह हमारे सामने रख रहे थे. बहुत कोशिशों के बाद हमारी मुलाकात उस घर के पड़ोसी मनोवर असरफ से हुई. उन्होंने बताया कि यह घर उनके चाचा जमील उद्दीन असरफ का है. बागमती हादसे के कुछ सालों बाद उनकी मौत हो गयी.

उन्होंने बताया कि बागमती रेल कांड ने इस घर के आगे का वंश तक को खत्म कर दिया. जमील के भतीजे मनोवर ने बताया कि घटना के इतने सालों बाद भी उस बर्बर रेल हादसे को सोच उनकी रूह कांप उठती है. मनोवर असरफ ने इस घटना से जुड़ी यादों को ताजा करते हुए बताया कि घटना के वक्त उनकी उम्र लगभग पच्चीस वर्ष थी. हमारे चाचा जमील उद्दीन असरफ के रिश्तेदार की बागमती रेल हादसे से एक-दो दिन पूर्व शादी हुई थी. उसी में सिमरी बख्तियारपुर से चाचा को छोड़ कर उनका पूरा परिवार रिश्तेदार के यहां गया था. शादी धूमधाम से हुई और शनिवार छह जून को चाचा के परिवार से जुड़े ग्यारह महिला-पुरुष और बच्चे उस ट्रेन से घर लौट रहे थे. साथ में पड़ोस की एक महिला जो चाचा के पोते-पोतियों और नाती-नतनियों की देखभाल के लिए शादी में गयी थी वह भी 416 डाउन पैसेंजर ट्रेन से लौट रही थी.

इधर, चाचा सहित सभी लोग सिमरी बख्तियारपुर स्टेशन पहुंच ट्रेन आने के इंतेजार में खड़े थे. ट्रेन नियत समय से काफी विलंब हो रही थी. विलंब के कारणों का भी पता नही चल पा रहा था. इसी उधेड़बुन के बीच एक दिल दहला देने वाली खबर हमे मालूम चली, किसी ने बताया कि ट्रेन बागमती में पलट गई है. पहले तो हमे विश्वास नहीं हुआ परंतु थोड़ी ही देर में हादसे की विभीषिका से जुड़ी खबरे हमारे कानो में गूंजने लगी.

चाचा कांप उठे अल्लाह को याद कर परिवार के सदस्यों की जिंदगी बख्शने की दुआ मांगने लगे. तब तक रात हो चुकी थी, किसी ने बताया कि कोई नही बचा. ये सुनते ही हम सभी की आंखों से आंसू की अविरल धारा बहने लगी. उस वक्त से लेकर अगले कई दिनों तक चाचा, हम और हमारे रिश्तेदार परिवार के सदस्यों की खोज में सिमरी से सहरसा, खगड़िया और घटनास्थल का दौरा करते रहे लेकिन कोई भी सदस्य का शव तक नही मिल पाया.उस घटना में चाचा जमील उद्दीन असरफ के दो लड़के इस्माइल असरफ और सुलेमान असरफ, दो लड़की मोमीना खातून और सबीना खातून, बहु असुरन खातून, दो पोता सुल्तान असरफ (6) और अकील असरफ (4), नाती इस्तियाक असरफ (10), अब्दुल हादी असरफ (8) और सफीक आलम (16), नतनी जरीना खातून (8) सहित पड़ोसी रजिका खातून काल के गाल में समा गये.

घटना के बाद चाचा पूरी तरह टूट चुके थे. इस दौरान रेलवे ने मृतक के परिजनों को मुआवजा देने का एलान किया परंतु चाचा ने यह कहते हुए मुआवजा लेने से इंकार कर दिया कि जब कोई बचा ही नही तो किसके लिए ये धन और दौलत रखूं. चूंकि घर के वंश को आगे बढ़ाने के लिए सामाजिक दबाव की वजह से चाचा ने घटना के एक साल बाद दूसरा निकाह कर लिया. जिनसे उन्हें एक बच्चा भी हुआ परंतु उसकी भी मौत हो गयी. बेइंतहा मिले गम और दर्द की वजह से चाचा का 1986 के लगभग इंतकाल हो गया. वही बीते साल 2016 में चाची भी अल्लाह को प्यारी हो गयी. जिसके बाद चाचा का घर जिसमे एक समय खुशियों का मेला लगा रहता था वह जहन्नुम बन गया.

मानवता हुई थी कलंकित..
भारत की सबसे बड़ी और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी ट्रेन दुर्घटना से छह जून 1981 को एक बदनुमा दाग जुड़ गया जिसने मानवता को कलंकित कर दिया. जो उस दुर्घटना में बच गये, वे आज भी उस मंजर को याद कर सिहर उठते हैं. बताया जाता है छह जून की शाम ट्रेन की बोगियों के नदी में गिरने के साथ ही चीख-पुकार मच गया. कुछ यात्री चोट लगने या डूब जाने से नदी में जलविलिन हो गये तो कुछ जो तैरना जानते थे, उन्होंने किसी तरह गेट और खिड़की से अपने और अपने प्रियजनों को निकाला. पर इसके बाद जो हादसा हुआ, वह मानवता के दामन पर बदनुमा दाग बन गया.

बताया जाता है कि घटना स्थल की ओर तैरकर बाहर आने वालों से कुछ स्थानीय लोगों ने लूटपाट शुरू कर दी. यहां तक कि प्रतिरोध करने वालों को कुछ लोगों ने फिर से डुबोना शुरू कर दिया. कुछ यात्रियों का तो यहां तक आरोप है कि जान बचाकर किनारे तक पहुंची महिलाओं की आबरू तक पर हाथ डालने का प्रयास किया गया. वही कुछ लोग बताते है कि बाद में जब पुलिस ने बंगलिया, हरदिया और बल्कुंडा गांवों में छापेमारी की तो कई घरों से टोकरियों में सूटकेस, गहने व लूट के अन्य सामान मिले थे. इससे यात्रियों के आरोपों की पुष्टि हुई थी. वही आज के समय में बदला व धमारा घाट के आसपास के ग्रामीण जहां इस बात को झूठ का पुलिंदा बताते है तो कुछ दबी जुबान से इस बात पर सहमती भी जताते है.

मृतकों की संख्या पर कंफ्यूजन
वर्ष 1981 के सातवें महीने का छठा दिन 416 डाउन पैसेंजर ट्रेन के यात्रियों के अशुभ साबित हुआ और भारत के इतिहास के सबसे बड़ी रेल दुर्घटना में शुमार हुआ. इस दुर्घटना में पैसेंजर ट्रेन की सात बोगियां बागमती नदी की भेंट चढ़ गयी. वही घटना के बाद तत्कालीन रेलमंत्री केदारनाथ पांडे ने घटनास्थल का दौरा किया. हालांकि, घटना के बाद रेलवे द्वारा बड़े पैमाने पर राहत व बचाव कार्य चलाया गया परंतु रेलवे द्वारा घटना में दर्शायी गयी मृतकों की संख्या आज भी कन्फ्यूज करती है क्योंकि सरकारी आंकड़े जहां मौत की संख्या सैकड़ो में बताते रहे तो वही अनाधिकृत आंकड़ा हजारों का था.

प्रभात खबर की टीम ने जब घटनास्थल के आसपास का दौरा किया तो कई ग्रामीणों ने बताया कि बागमती रेल हादसे में मरने वालों की संख्या हजारो में थी. ग्रामीणों ने बताया कि नदी से शव मिलने का कारवां इतना लंबा था कि बागमती नदी के किनारे कई हफ्तों तक लाश जलती रही थी. वही घायलों की संख्या की बात करे तो यह संख्या भी हजारो में थी. यहां यह बता दे कि यह हादसा विश्व की दूसरी सबसे बड़ी रेल दुर्घटना में शामिल है. वही विश्व की सबसे बड़ी ट्रेन दुर्घटना श्रीलंका में 2004 में हुई थी. जब सुनामी की तेज लहरों में ओसियन क्वीन एक्सप्रेस विलीन हो गयी थी. उस हादसे में सत्रह सौ से अधिक लोगों की मौत हुई थी.

चर्चा-ए-हादसा
आज से छत्तीस वर्ष पूर्व हुए देश की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना से जुड़ी हमेशा से कई चर्चाएं आम रही. उनमें से कुछ महत्वपूर्ण चर्चाएं निम्न है :
– बताया जाता है कि हादसे के बाद बागमती नदी से शव इतनी ज्यादा संख्या में निकले थे कि प्रशासन ने कुछ दिनों के लिए पुल संख्या 51 के आसपास के ग्रामीणों को बागमती के पानी ना पीने की सलाह दी थी. साथ ही ग्रामीणों को उनके पशुओ को भी बागमती की पानी ना पिलाने का सलाह दी गयी.

– छह जून 1981 की संध्या धमारा और बदला के आसपास तूफान का वेग इतना ज्यादा था कि छोटे-छोटे बच्चे को उठा कर एक जगह से दूसरी जगह गिरा देता था.

-छह जून 1981 को ट्रेन में यात्रियों की भीड़ ज्यादा होने की मुख्य वजह शादी-विवाह का लग्न जबरदस्त होना था. वही ट्रेन में अधिकतर यात्री शादी-बारात में जा रहे थे या लौट रहे थे.

– घटनास्थल के आसपास ग्रामीण बताते है कि घटना के बाद लगभग एक महीने तक हर रोज दिन और रात चिताये जलती रही.

– देश की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना के अगले दिन सुबह से ही हेलीकॉप्टरो का पुल संख्या 51 के बगल के खेत में उतरना-उड़ना कई दिनों तक जारी रहा.

– ग्रामीण बताते है कि सेना और नेवी द्वारा शवों को खोजने के लिए काफी मशक्कत किया गया. सेना ने पानी के अंदर टाइमर विस्फोट कर शव निकालने की योजना बनाई थी.

– रेलवे के लिए 1981 अशुभ वर्ष के रूप में जाना जाता है.उस वर्ष जनवरी से दिसम्बर तक में भारत के विभिन्न हिस्सों में कई रेल दुर्घटनाये हुई थी. उस समय रेल की कमान केदारनाथ पांडे के हाथ में थी.

– रेल हादसे के बाद हर गोताखोर को एक लाश निकालने पर कुछ पैसे देने को कहा गया था पर गोतोखोरों ने लाश निकालने के बदले में पैसे लेने से मना कर दिया.

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