अब स्कूलों में नहीं बजती खेल की घंटी

पहले आठवीं घंटी बजते ही खिल उठते थे बच्चों के चेहरे खगड़िया : पहले स्कूलों में आठवीं घंटी बजाते ही बच्चों का चेहरा खिल उठता था. आठवीं घंटी खेल की हुआ करती थी. वैसे तो बच्चे अपने घर के आसपास भी खेलते थे, लेकिन अपने सहपाठियों के साथ खेलने का मजा ही कुछ अलग था. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 28, 2017 12:20 PM
पहले आठवीं घंटी बजते ही खिल उठते थे बच्चों के चेहरे
खगड़िया : पहले स्कूलों में आठवीं घंटी बजाते ही बच्चों का चेहरा खिल उठता था. आठवीं घंटी खेल की हुआ करती थी. वैसे तो बच्चे अपने घर के आसपास भी खेलते थे, लेकिन अपने सहपाठियों के साथ खेलने का मजा ही कुछ अलग था. उन्हें भूख प्यास की भी चिंता नही रहती थी. आठवीं घंटी का समय कब बीत जाता था बच्चों को पता भी नही चलता था. वे अगले दिन के आठवीं घंटी का इंतजार करने लगते थे. स्वस्थ मस्तिष्क के लिए स्वस्थ शरीर जरूरी है. शरीर को स्वस्थ रखने का एक मनोरंजक साधन खेल है. बच्चों के सर्वांगीण विकास में खेल के महत्व को देखते हुए यूनिसेफ द्वारा प्रदत्त चाइल्ड राइट्स में भी खेल के अधिकार पर जोर दिया गया है.
स्कूलों में खेल पर लगा ब्रेक
शुरुआती दौर में स्कूलों में आठवीं घंटी खेल की होती थी. आज स्कूलों में हालात बिल्कुल उलट है. सरकार की उदासीनता, अभिभावकों की अदूरदर्शिता और निजी संस्थानों के व्यावसायिक सेटअप में ज्यादातर स्कूलों के पास प्ले ग्राउंड नहीं है. किसी के पास है भी तो खेल की हैसियत दोयम दर्जे की है.
नतीजतन मानसिकता के साथ शारीरिक विकास की अवधारणा कंप्यूटर, मोबाइल और वीडियो गेम की खुराक बन चुकी है. स्कूलों से अब आठवीं घंटी पूरी तरह से गायब हो चुकी है. कुछ दशक पूर्व तक खेलों को शिक्षा का आवश्यक अंग समझा जाता था. स्कूलों, काॅलेजों व विश्वविद्यालयों में अनेक प्रकार के खेलों की पूरी व्यवस्था की जाती थी. बच्चों में सहयोग, उदारता, सहनशीलता, अनुशासन, आपसी मेलभाव जैसे मौलिक चारित्रिक गुणों के दर्शन बच्चों के खेल के मैदान में दिखाई देते थे.
जिले में अधिकांश सरकारी से लेकर निजी स्कूलों तक खेलकूद की कोई नियमित गतिविधि नहीं होती है. स्कूल का सफर तो अब प्ले स्कूल से ही शुरू हो जाता है. ये प्ले स्कूल भी नाम के ही प्ले स्कूल हैं.
यहां भी खेल का मैदान खोजने से नहीं मिलता है. एक कमरे में खेलकूद सामग्री जुटा कर प्ले स्कूल की औपचारिकता पूरी की जाती है. सरकारी स्कूलों में तो स्थिति और बदतर है. अधिकारी भी मानते हैं कि स्कूलों में खेलकूद की स्थिति ठीक नहीं है. जिले में सैकड़ों प्राथमिक विद्यालयों के पास अपनी भूमि या भवन नहीं है. तो वहां खेल मैदान की बात ही बेइमानी है. जिला मुख्यालय में ही कई प्राथमिक विद्यालय में खेल का मैदान नहीं है. कई हाई स्कूल तक में खेल मैदान का अभाव है. कुल मिला कर जिले के स्कूलों में खेलकूद की गतिविध मृतप्राय है. जिससे बच्चों में नैतिक गुणों का दिन व दिन अभाव होता जा रहा है.
खेल से शारीरिक व मानसिक विकास संभव
स्कूलों के खेल से विकास करने से न केवल उनके अनमोल गुणों का विकास ठप हो गया है. बल्कि वे प्रवृति से दूर होते जा रहे हैं. अब स्कूल से घर लौटने वाले बच्चे पसीने व मिट्टी से लथपथ नहीं दिखते हैं. ऐसा नहीं कि हर खेल के लिए बड़े मैदान की दरकार होती है. क्रिकेट, फुटबाल, हॉकी जैसे खेल के लिए बड़े मैदान चाहिए तो खो-खो, कबड्डी, कुश्ती जैसे खेल तो विद्यालयों के प्रांगण में भी खेले जा सकते हैं.
प्रधानाध्यापक की सुनिये …
कन्या मध्य विद्यालय जमालपुर के प्रधानाध्यापक रुस्तम अली ने बताया कि उनके विद्यालय में खेल नियमित रूप से होता था. विद्यालय की छात्रा स्मिता जायसवाल ने हॉकी में राज्य की टीम का प्रतिनिधित्व कर जिला का नाम रौशन किया है. शारीरिक शिक्षक रामसेवक सिंह के अवकाश प्राप्त करने के बाद थोड़ी परेशानी हो रही है.

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