खत्म हो रही है प्रेम के आदान-प्रदान की संस्कृति

खत्म हो रही है प्रेम के आदान-प्रदान की संस्कृति मकर संक्रांति में नहीं दिखती अब वो बातउत्तर बिहार से जाता था दही, दक्षिण से आता था चूड़ाप्रतिनिधि, परबत्ताजिला समेत प्रखंड में इस बार मकर संक्रांति की तिथि को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है. इस बार कुछ लोग पुराने परंपरा के हिसाब से 14 […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 13, 2016 10:24 PM

खत्म हो रही है प्रेम के आदान-प्रदान की संस्कृति मकर संक्रांति में नहीं दिखती अब वो बातउत्तर बिहार से जाता था दही, दक्षिण से आता था चूड़ाप्रतिनिधि, परबत्ताजिला समेत प्रखंड में इस बार मकर संक्रांति की तिथि को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है. इस बार कुछ लोग पुराने परंपरा के हिसाब से 14 जनवरी को ही इस त्योहार को मनायेंगे. वहीं शेष लोग 15 जनवरी को मनाने पर विचार कर रहे हैं. इसे स्थानीय स्तर पर दही-चूड़ा और तिलकुट का पर्व भी कहा जाता है. इलाके के बुजुर्ग पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि जब मकर संक्रांति के पर्व के दौरान उत्तर और दक्षिण बिहार में रहने वाले रिश्तेदारों के बीच दही-चूड़ा के बहाने प्रेम का आदान प्रदान हुआ करता था. इसकी झलक उत्तवाहिनी गंगा नदी के किनारे अगुवानी घाट पर मिला करती थी. उन दिनों मोबाइल व फोन के अभाव में तथा पत्र पहुंचने व उसके उत्तर के आने में लगने वाले समय को ध्यान में रखकर दक्षिण बिहार के लोग चूड़ा-गुड़ लेकर गंगा के इस पार तथा उत्तर बिहार के लोग दही-मिर्च लेकर दक्षिण बिहार के जिलों में रहने वाली अपनी बेटी बहनों के यहां जाया करते थे. इस प्रकार के विनिमय से न केवल कम खर्च में मकर संक्रांति मना ली जाती थी, बल्कि एक दूसरे का कुशल क्षेम अपनी नजरों से देख लिया जाता था. इस आवाजाही में बढ़ी हुई भीड़ को गंगा पार कराने के लिए स्टीमर की अतिरिक्त खेप भी चलानी पड़ती थी. कभी कभी तो अतिरिक्त नाव भी चलानी पड़ती थी. मिट्टी के बर्तनों में दही ले जाने में कभी असावधानी से टूट जाने पर इसे ले जाने वाले न केवल उपहास का पात्र बनते थे, बल्कि उन्हें अगले वर्ष मकर संक्रांति तक इस बात का अफसोस रहता था. उत्तर बिहार के कुछ जिलों में धान की खेती होने के बावजूद दक्षिण बिहार के भागलपुर, बांका, मुंगेर जिले के धान का चूड़ा अपने अलग स्वाद व गंध के कारण खाने वालों को विशेष रूप से आकर्षित करता है. वहीं खगड़िया, बेगूसराय जिले के दूध की गुणवत्ता एवं उत्पादन में कोई जोड़ नहीं है. विगत वर्षों में लोगों की जीवन शैली में व्यस्तता बढ़ने तथा संवाद प्रेषण की आधुनिक तकनीकों के बाद प्रेम के आदान-प्रदान की यह संस्कृति समाप्त होती चली गयी. पर, अब भी कुछ लोग इसे संभाल कर रखे हुए हैं.

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