बस्ते के बोझ में गुम हो रहा बचपन
स्कूली बच्चों का नया सत्र प्रारंभ हो चुका है.इसके साथ ही अब बच्चे अपने पिछली कक्षा से डेढ़ गुना अधिक बस्ते का बोझ ढ़ोने लगे हैं. किताबों की संख्या और काफी अधिक परिणाम में कॉपी ने जहां बच्चों की पीठ तोड़ रही है, वहीं अभिभावकों की कमर भी टूटने लगी है.
किशनगंज.स्कूली बच्चों का नया सत्र प्रारंभ हो चुका है.इसके साथ ही अब बच्चे अपने पिछली कक्षा से डेढ़ गुना अधिक बस्ते का बोझ ढ़ोने लगे हैं. किताबों की संख्या और काफी अधिक परिणाम में कॉपी ने जहां बच्चों की पीठ तोड़ रही है, वहीं अभिभावकों की कमर भी टूटने लगी है. जिले में इन दिनों नामी गिरामी विभिन्न निजी विद्यालयों में स्थिति यही है. जिससे अभिभावकों के समक्ष उहापोह की स्थिति बनी हुई है कि एक ओर जहां सरकारी विद्यालयों में किताबों की संख्या कम है, वहीं निजी विद्यालयों में बस्ते के बोझ ने छात्रों के विकास पर अंकुश लगा दिया है.विश्व में हो रहे रिसर्च ने तो यह बात स्पष्ट कर दिया है कि बच्चों के विकास में होमवर्क और बस्ते का बोझ बहुत बड़ा बाधक है. रिसर्च में यह भी बताया गया है कि कक्षा चार के नीचे के बच्चों के लिए होमवर्क कम दिया जाए ताकि बच्चों को खेलने-कूदने का पर्याप्त समय मिल सके और माता-पिता इन्हें सर्वाधिक समय दे सके किन्तु तस्वीर कुछ और है। एक बड़े बोझ(बस्ता)को पीठ पर उठाकर प्रतिदिन छोटे-छोटे छात्र स्कूल जाते है और उधर से होमवर्क का बोझ लेकर घर लौट आते है.
छात्रों को नहीं मिलता खेलने-कूदने का समय
विद्यालयों में होमवर्क का इतना अधिक लोड रहता है कि छात्र खेलकूद में शामिल नहीं हो पाते.लिहाजा इसका असर उनके स्वास्थ्य पर भी पड़ सकता है. इस भागदौड़ में उनका बचपन कहां खो जाता है, उन्हें भी पता नहीं चलता और धीरे-धीरे उनके स्वभाव में भी परिवर्तन होता दिखता है. और वे बचपन से सीधे एक दबे हुए किशोर में परिवर्तित हो जाते है. भविष्य में देश के विकास का बोझ वहन करने वाले अबोध नौनिहाल आज अपने बस्ते के बोझ से दबे जा रहे हैं. 20 किलो के बच्चे और 10 से 12 किलो का उनका बैग, यह उन पर जुल्म नहीं तो और क्या है?आज की शिक्षा प्रणाली में इनका बचपन कुंठित हो रहा है और शारीरिक और मानसिक विकास कुंद पड़ता जा रहा है.हो सकते हैं बच्चे बीमार
शिक्षा के व्यवसायीकरण के कारण अब निजी विद्यालयों के द्वारा अधिक से अधिक पुस्तक देना उत्कृष्टता का पैमाना बनता जा रहा है.इन विद्यालयों के द्वारा छोटी कक्षाओं के लिए भी दर्जनों पुस्तकें दी जाती हैं. उसके साथ अलग-अलग विषयों की अलग-अलग कापियां. लंच बॉक्स, पानी की बोतल और छाता से वजन और भी बढ़ जाता है.इतना अधिक वजन कई बीमारियों का जनक हो सकता है, इसका ख्याल स्कूल प्रबंधन कतई नहीं करते हैं.
रोग प्रतिरोधक क्षमता में हो रही है कमी
विशेष रूप से बढ़ते हुए बच्चों में कैल्शियम की कमी और इतने वजन के कारण उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो जाती है. कई बीमारियां पनपने लगती हैं. चिकित्सकों की माने तो बच्चे अब कई शारीरिक और मानसिक बीमारियों से जूझने लगे है. कितनों के आंखों पर तो पावर वाले चश्मे भी चढ़ गयें हैं. इतनी कम उम्र में इतने बड़े कर्तव्य का बोध कराना अब उन्हें अवसाद की स्थिति में लाने लगा है. नस और हड्डी से संबंधित बीमारियों भी बच्चों में होने लगी है.इस संबंध में शिशु रोग विशेषज्ञ चिकित्सक बतातें हैं कि मानसिक दवाब के कारण बच्चों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. इसके साथ ही अधिक वजन से बैकपेन, रीढ़ में कमजोरी, नेकपेन तथा नस से संबंधित बीमारियां हो सकती है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है