मेले में मनोरंजन,झूले एवं खेल तमाशा का भरमार.
झूला और खेल तमाशा कर रहा है सभी को आकर्षितकिशनगंज.ऐतिहासिक खगड़ा मेला इन दिनों पूरे शबाब पर है.जिले के अलावे पड़ोसी जिले अररिया,पूर्णिया,पश्चिम बंगाल और नेपाल से भी मेला देखने के लिए लोगों का तांता लग रहा है.तरह-तरह के दुकानें,विभिन्न प्रकार के दर्जनों झूला,मौत का कुआं,चित्रहार,थियेटर, जादू का खेल जहां लोगों को मेले में आने को आकर्षित कर रहा है.वहीं मीना बाजार,व्यंजनों की भरमार और चटपटे चीजों की कई दुकानें सहित हैंड मेड वस्तुओं की दुकानों पर भारी भीड़ उमड़ रही है.मेला प्रबंधक बबलू साहा और सुबीर कुमार उर्फ रिनटू दा ने संयुक्त रूप से जानकारी देते हुए बताया कि मेला घूमने आने वाले लोगों के लिए तमाम सुविधाओं का इंतज़ाम किया गया है.खगड़ा मेला के इतिहास में पहली बार आधा दर्जन ऐसे झूले आए हैं जो पहली बार आए हैं खासकर जल परी मेला घूमने वालों के के लिए आकर्षण का केंद्र है.
नये तरह के झूले और मीणा बाजार खींच रहा है पर्यटकों का ध्यान
खगड़ा में आए मीणा बाजार,सौंदर्य प्रसाधन की दुकानें,खेल तमाशा और नए तरह के झूला बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच रहा है.
खगड़ा मेला का इतिहास
जानकार बताते हैं कि मेला का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है.कभी यह सोनपुर के बाद एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला था.देश के अन्य प्रदेशों से आये व्यापारी मेले में अपने विशिष्ट उत्पादों के स्टॉल लगाकर मेले की रौनक में चार चांद लगा रहें हैं. जानकार बताते हैं कि तत्कालीन खगड़ा नवाब सैयद अता हुसैन ने मेले की नींव रखी थी.तब अंग्रेजी हुकूमत थी.पूर्णिया के समाहर्ता अंग्रेज अधिकारी ए. विक्स थे.उन्होंने इस मेले में काफी सहयोग किया था एवं पहली बार इस मेले का नाम उन्हीं के नाम पर विक्स मेला रखा गया.1956 में जमींदारी प्रथा उन्मूलन के बाद यह मेला राजस्व विभाग के अधीन आ गया.उस वक्त इस मेले का कोई जोर नहीं था.मेले की भव्यता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1950 में इस मेले में पशुओं की बिक्री से 80 लाख रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था. ये सभी इतिहास मेला गेट के आगे बने स्तूप पर दर्ज है. इतना ही नहीं मेले का क्षेत्रफल भी कई वर्ग किलोमीटर में हुआ करता था.ये जगह आज भी हाथीपट्टी,मवेशीपट्टी आदि के नाम से जाने जाते हैं.तरह-तरह के पशु पक्षियों के व्यापारी भी यहां आते हैं. मेले में आए व्यापारियों में अपने प्रतिष्ठानों को सजाने की होड़ रहती है.
मेले का नाम खगड़ा क्यों पड़ा इसकी कोई ठोस जानकारी लोगों को नहीं है. कुछ बुजुर्ग बताते हैं कि यहां खगड़ा नाम के घास का मैदान था जिस कारण इस क्षेत्र का नाम खगड़ा पड़ा.80 के दशक में ही मेला अपने ढ़लान पर गया और एक समय ऐसा आया जब कई वर्षों तक मेले का संचालन भी नहीं हो सका. सन 2000 में इस मेले को फिर से सजाने का प्रयास शुरु हुआ.आम लोगों ने प्रयास शुरु किया तो प्रशासन का भी सहयोग मिला.वर्ष 2003 में तत्कालीन डीएम ने मेले की शानदार परंपरा को फिर से पुर्नजीवित करने का प्रयास किया.मुख्य द्वार के सामने स्तूप का निर्माण कराया गया.इसपर मेले के गौरवशाली अंकित को उकेरा गया.लेकिन परिसर में कई तरह के सरकारी भवन बन चुके हैं.एवं लगातार बनते जा रहे हैं. मेला का क्षेत्रफल सिकुड़कर दस फीसदी से भी कम रह चुका है.इस मेले को लेकर आज भी शहरवासियों सहित आस-पास के क्षेत्र के लोगों में काफी उत्साह होता है. लोग वर्ष भर इस मेले के इंतजार में रहते हैं.विशेषकर बच्चों में इस मेले को लेकर विशेष आकर्षण होता है. मेले का क्षेत्रफल सिकुड़ जाने व विभिन्न तरह के पशु पक्षियों के नहीं आने के बावजूद आधुनिक खेल तमाशों का आकर्षण बच्चों में बना हुआ है. लेकिन अब एक बार फिर से मेला पूरे शबाब पर है मेले घूमने,खरीदारी करने के लिए लोग लगातार मेला पहुंच रहने हैं.
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