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मिट्टी के दीये जलाना हमारी परंपरा,इस संस्कृति को बनाए रखना हमारा कर्तव्य

वो तो कोशिश कर रहें हैं कि हर घर दीपक जले. अब जिम्मेवारी हमारी है दीपक उनके घर भी जले.जी हां उम्मीद के चाक ने एक बार से रफ्तार पकड़ी है.

-बिक्री में गिरावट के कारण इस धंधे से कुम्हारों का हो रहा है मोहभंग-आधुनिकता के चकाचौंध में गुम हो रहे मिट्टी के दीये.

-परंपरागत मिट्टी के दीये की जगह चायनीज बल्ब और झालरों ले रखा है.

फोटो 3 मिट्टी के दीये बेचते कुम्हार व खरीददते लोग

प्रतिनिधि,किशनगंज

वो तो कोशिश कर रहें हैं कि हर घर दीपक जले. अब जिम्मेवारी हमारी है दीपक उनके घर भी जले.जी हां उम्मीद के चाक ने एक बार से रफ्तार पकड़ी है. दीयों और मिट्टी के बर्तन के धंधे से जुड़े कुम्हार समुदाय विशेष तौर पर दीपावली के त्योहार का वर्ष भर इंतजार करते हैं. दीपावली से लेकर छठ के बीच मिट्टी से बने दीये, कोशी,मिट्टी के हाथी,डिबरी आदि की कभी जोरदार मांग होती थी.प्राचीन काल से ही मिट्टी के बर्तनों का प्रचलन चला आ रहा है.मिट्टी के बर्तन पूजा के लिए कलश तथा पानी के लिए सुराही की आवश्यकता हमेशा से रही है.लेकिन आधुनिकता में मिट्टी के बर्तनों की मांग को कम कर दिया है.जिससे कुम्हारी कला को झटका लगा है.शास्त्रों के अनुसार कलश दीया और मिट्टी के बर्तन का प्रयोग होता आ रहा है.लेकिन आधुनिकता के चकाचौंध में यह कला बेरौनक होती जा रही है.दीपावली के पावन अवसर पर मिट्टी के दीये का स्थान चाइनिज लट्टूओं ने ले रखा है.हालांकि पूजा अनुष्ठान के समय मिट्टी के दीपक घी या तेल से आज भी दीया जलाने की परंपरा जारी है.मिट्टी के बर्तन और दीये बनाने वाले दीपावली के एक दो दिन पूर्व बच्चों के लिए मिट्टी के खिलौने, हाथी, घोड़ा, जाता,घंटी, तराजु के साथ कलश दीया आदि खरीदने के लिए ग्रामीणों की भीड़ जुटती थी. लेकिन बदलते परिवेश में केवल परंपराओं के निर्वहन के लिए इसकी मांग सीमित होकर रह गई है.बढ़ती मंहगाई एवं बर्तनों की मांग में कमी देखते हुए कुम्हार अपना पुश्तेनी प्रथा छोड़कर अन्य व्यवसाय अपनाने को मजबूर हैं.

इको-फ्रेण्डली मिट्टी से निर्मित मूर्तियां दीये व खिलौने पूरी तरह इको-फ्रेंडली होते हैं

इसकी बनावट, रंगाई व पकाने में किसी भी प्रकार का केमिकल प्रयोग नहीं किया जाता है. दीये पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं.

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मिलती है मजबूती

गांव में सदियों से पारंपरिक कला उद्योग से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में जहां पूरा सहयोग मिलता रहा,वहीं गांव में रोजगार के अवसर भी खूब रहे.इनमें से ग्रामीण कुम्हारी कला भी एक रही है,जो समाज के एक बड़े वर्ग कुम्हार जाति के लिए रोजी-रोटी का बड़ा सहारा रहा.

ग्रामीण अर्थ व्यवस्था के लिए जरूरी

गांव में सदियों से पारंपरिक कला उद्योग से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में जहां पूरा सहयोग मिलता रहा,वहीं गांव में रोजगार के अवसर भी खूब रहे. इनमें से ग्रामीण कुम्हारी कला भी एक रही है,जो समाज के एक बड़े वर्ग कुम्हार जाति के लिए रोजी-रोटी का बड़ा सहारा रहा.

मिट्टी के दीयों का धार्मिक महत्व

हिंदू परंपरा में मान्यता है कि मिट्टी का दीपक जलाने से घर में सुख,समृद्धि और शांति का वास होता है. मिट्टी को मंगल ग्रह का प्रतीक माना जाता है. मंगल साहस, पराक्रम में वृद्धि करता है और तेल को शनि का प्रतीक माना जाता है.शनि को न्याय और भाग्य का देवता कहा जाता है. मिट्टी का दीपक जलाने से मंगल और शनि की कृपा प्राप्त होती है. जो मन की शांति एक मिट्टी के दिये से मिलती हैं वह आज की रंग- बिरंगी रोशनी से कदापि नही मिल सकती. यह हमें सिखाता है कि किस प्रकार स्वयं जलकर दूसरों के जीवन में रोशनी लायी जाती है। दीपावली की काली रात में एक दीपक किस प्रकार अपने चारों ओर एक सुंदर प्रकाश को फैलता है.जो देखने लायक होता है.

मिट्टी के दिये का शारीरिक लाभ

दिवाली ऐसे समय मे आती है जब वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी होती है तथा शरद ऋतु शुरू जो जाती है.ऐसे समय मे वातारण में किट-पतंगे,मच्छर व अन्य जहरीले विषाणुओं की संख्या बढ़ जाती है. जो सभी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है. दीपावली में जब सरसों के तेल से मिट्टी के दिये जलाए जाते हैं तो इन सभी जीवाणुओं का नाश हो जाता है.

मिट्टी के दीये का प्राकृतिक लाभ

मिट्टी ही प्रकृति है तथा इसी मिट्टी के दिये जलाने से प्रकृति को कोई हानि नही है.यदि यह दिये टूट भी जाते हैं या इन्हें फेकना भी हो तो इसे नदी -नहर में बहा दिया जाता है जिससे प्रकृति को कोई नुकसान नही होता दूसरी ओर प्लास्टिक इत्यादि धातुओं से बनी लाइट्स या दिये पर्यावरण के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं

शुभ माने जाते हैं मिट्टी के दिये

दीपावली और महापर्व छठ के आगमन के साथ ही सुस्त पड़ गए चाक ने एक बार फिर रफ्तार पकड़ लिया है.कुम्हार दीपों के त्योहार दीपावली की तैयारियों में जुट गए हैं,और हाट बाज़ारों,चौक चौराहों पर इसे बेचने के लिए दुकानें भी सजने लगी हैं.मांग बढ़ने से ग्रामीण इलाकों से लेकर शहर तक कुम्हार चाक के सहारे दीप,कलश तथा पूजा के दौरान उपयोग में आने वाले मिट्टी के बर्तन को तैयार करने में जुट गए हैं.सुदूर ग्रामीण इलाकों तक के विभिन्न इलाकों में कुम्हार चाक पर काम करते देखे गए. कई कुम्हारों ने पूछे जाने पर बताया कि दुर्गापूजा के पूर्व उनका काम कुछ मंदा पड़ गया था. लेकिन नवरात्र शुरू होने के साथ ही मिट्टी के बने बर्तनों की मांग बाजार में बढ़ने के कारण वे लोग लगातार काम कर रहे हैं.कुम्हारों का कहना है कि मिट्टी के बर्तनों की मांग पर्व,त्योहारों में अचानक बढ़ जाती है. खासकर दीपावली से लेकर छठ तक मिट्टी के बर्तनों की मांग काफी रहती है.ऐसे में दिन रात एक कर मिट्टी के बर्तन को बनाने का कार्य किया जा रहा है.

महंगाई का असर मिट्टी के बर्तनों और दीयो पर भी

दीपों के त्योहार व सूर्योपासना के महापर्व छठ को देखते हुए मिट्टी के बने बर्तनों की कीमत भी बढ़ गई है.कच्चे व पक्के दीये की कीमत मिट्टी के बर्तन की दुकान पर आसमान छू रही है.इसी प्रकार कलश,कुल्हड़,हाथी आदि की कीमतें भी इस बार गत वर्ष की अपेक्षा अधिक है.मिट्टी के बर्तन को खरीदने पहुंचने वाले लोगों ने बताया कि पिछले साल की अपेक्षा हरेक सामान की कीमत अधिक है.बावजूद इसके पर्व के दौरान मिट्टी के बरतन की खरीद जरूरत के हिसाब से करनी ही पड़ेगी.

चाइनीज झालरों ने बिगाड़ा मिट्टी के दीयो का बाजार

चाइनीज झालरों ने बिगाड़ी दुकानदारी बदलते समय में कुम्हारों को मिट्टी के दीये बनाने के लिए न तो आसानी से मिट्टी मिल पाती है,न ही जलावन के लिए लकड़ी,किसी तरह संघर्ष करके इन चीजों को वे जुटा भी लेते हैं तो इन्हें उपयुक्त बाजार नहीं मिलता.बाजार में तरह-तरह के चाइनीज झालर बिक रहे हैं. जो मिट्टी के दीयों से सस्ते और लगाने में आसान भी होते हैं. लोगों का झुकाव अब इन्ही रंग-बिरंगी झालरों की तरफ है. पहले लोग मिट्टी के दीयों से ही दीपावली पर अपने घर को सजाते थे. लेकिन अब लोग आधुनिक झालरों से ही घरों को सजाना पसंद कर रहे हैं. यही कारण है कि बाजार में मिट्टी के दीयों की मांग कम हो गयी है. जिसके कारण दीये बनाने वाले कुम्हार और उनके परिवार पर आर्थिक बोझ बढ़ गया है. अगर उपयुक्त बाजार इन्हें मिले तो इनके रोजगार में वृद्धि होगी. साथ ही साथ प्लास्टिक के कचरे से निजात मिलेगी, जिससे पर्यावरण भी ठीक होगा. मान्यता है कि दीपावली के दीयों में जलने के कारण कई तरह के किट फतंगे भी नष्ट हो जाते हैं.

कहतें हैं कुम्हार

चाक पर मिट्टी की दीये बना रहे कुम्हार बताते हैं.कि दीपावली पर ही सही कुछ कमाई हो जाये.वरना इन मिट्टियों की कीमत कोई क्या देगा.वे बताते हैं कि हमारा पेशा है.बस दो वक्त का पेट भर जाता है. वर्ना इस पेशे में कुछ नहीं रखा है.पूर्वजों से सौगात में मिली हुनर है.बस इसे जिंदा रखे हुए है.दीपावली पर लोग अब भी मिट्टी के दीये जलाना पसंद करते है. इसलिए थोड़ी बहुत हमारी भी कमाई हो जाती है.

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