लखीसराय : माह-ए-मुहर्रम आते ही आलमे इस्लाम में एक नये बाब(अध्याय) की शुरुआत होती है. यह महीना अरबी साल का पहला महीना होता है. इस महीने में बहुत सारे इसलामी वाकयात रुनुमा हुए हैं. इसी तारीख को दुनियां वजूद में आयी. माना जाता है कि कयामत की तारीख भी इसी दिन लिखी जानी है.
इसके अलावे और भी बहुत सारे अहम वाकयात इससे जुड़े हैं, लेकिन इन सबसे इतर मोहम्मद साहब के नवासे(नाती) इमाम हुसैन की शहादत मुहर्रम को तारीखी पहचान दिलाती हैं. दूसरे अल्फाज में यूं कहें कि बातिल(असत्य) ताकतों पर हक की कूबत को हुसैन अलैह सल्लाम ने अपनी जान की कुर्बानी देकर बरकरार रखा.
ताकि आनेवाली पीढ़ी हक की राह पर बातिल ताकतों का मर्दानावार मुकाबला कर सकें. लेकिन अफसोस की बात यह हैं कि आज जिस पैराये(स्वरूप) में मुहर्रम मनाया जाता है यह पैराया इसलामी तारीख से बिल्कुल अलहदा है. सच तो यह है कि यौमे-आथुरा अर्थात 10 वीं तारीख के बदन इमानवालों को सुन्नत के तौर पर रोजे का एहतमाम करना चाहिए. प्यासे को पानी, भूखे को खाना हुसैन के अलौहे सल्लाम के नाम पर देकर उन्हें सच्ची खैराज-ए-अकीदत अदा करनी चाहिए.
पर हमारा मुआशरा इन हकीकतों से कोसों दूर दिखाई देता है. इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बादवहीं दूसरी ओर मुहर्रम के पैगाम को किसी तरह यूं बयां किया है. हुसैन जैसा शहीदे-ए-आजम जहां में कोई दूसरा न हुआ है और न होगा. मुहर्रम उस दुखद घटना की याद में मनाया जाता है, जिसमें पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन, उनके परिजनों व साथियों को करबला के मैदान में यजीद की फौज ने शहीद कर दिया था. यह गम व दुख की यादगार है.
मुहर्रम में उन्हीं शहीदों को श्रद्धांजलि देकर उनका नमन किया जाता है. 61 हिजरी में करबला में हुई जंग सत्य व असत्य के बीच जंग थी. एक तरफ यजीद की जोरो-जुल्म की ताकत थी, दूसरी तरफ इमाम हुसैन मात्र 72 साथियों के साथ ईमान की ताकत से लबरेज थे. वे आदर्शो के लिये लड़ रहे थे.
उन्हें अपने नाना पैगंबर मुहम्मद साहब के दीन व शरीअत की हिफाजत करनी थी. इमाम हुसैन ने बखूबी इस महान काम को अंजाम दिया. लेकिन यह काम करने में उन्हें अपने परिवार व मित्रों की कुरबानी देनी पड़ी. मुहर्रम का संदेश यह है कि लोग कुरबानी देना सीखें. सत्य व आदर्शों के लिये जीना सीखें. हजरत इमाम हुसैन ने अपने नाना जान हजरत मुहम्मद साहब के सिद्धांतों और उनके आदर्शों की हिफाजत अपने अजीम शहादत देकर की. वे जुल्म के आगे झुके नहीं, बल्कि उन्होंने सब्र और शहादत की मिसाल पेश की, जो दुनिया में यादगार है.