Lok Nayak Jayanti आपातकाल का दौर खत्म हाे चुका था. केंद्र में मोरारजी देसाई की सरकार बन चुकी थी. बिहार में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे. 1977 में हम लोग लोहिया विचार मंच की तरफ से एक पत्रिका ‘सामयिक वार्ता’ प्रकाशित करने जा रहे थे. किशन पटनायक उस पत्रिका के संपादक थे. मैं और कुछ और साथी प्रूफ रीडिंग करते थे. पत्रिका के पहले अंक की तैयारी में हम लोग किशन पटनायक जी के साथ जय प्रकाश नारायण से साक्षात्कार लेने पहुंचे. सवाल जवाब का दौर चला तो पटनायक जी ने पूछा कि जय प्रकाश जी सरकारें आपसे राय-मशिवरा करती हैं कि नहीं? जय प्रकाश जी ने बिना समय गंवाये व्यांगात्मक लहजे में उत्तर दिया ‘मुझे पूछता कौन है?’
साक्षात्कार लेकर हम लोग खजांची रोड स्थित अपने प्रेस में आ गये. कॉपी लिखी गयी. तभी हमारे कुछ पत्रकार मित्र आ गये. मैं उस समय प्रूफ पढ़ रहा था. मित्रों की चाय का प्रबंध करने चला गया. तभी पत्रकार मित्र बीके मिश्र की नजर उस साक्षात्कार पर पड़ी,जिसमें जेपी कह रहे हैं कि मुझे पूछता कौन है? उन लोगों ने उस समय के चर्चित अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन नेशन’ में वह बात छाप दी. बाद में एजेंसियों ने भी प्रकाशित कर दिया. एजेंसियों के मार्फत जब यह बात प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को मालूम हुई तो सफाई देने लोक नायक से मिलने पटना आये. कहा कि ऐसी बात नहीं है. प्रधानमंत्री देसाई ने उन्हें आश्वस्त किया कि हमें आपकी परवाह है. कुल मिला कर इससे साफ होता है कि तब की सरकारों और नेताओं को अपने बड़ों के प्रति कुछ श्रद्धा जरूर थी.
वह बात अब कहां. जय प्रकाश नारायण की असीमित क्षमताएं थीं. यही वजह है कि कश्मीर समस्या हो या नागालैंड का अलगाव , सभी तरह की समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंकी. कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के समय उन्होंने उनके मानवाधिकार की रक्षा करने की बात कही थी. देश की हर समस्या के समाधान के लिए उन्होंने मौलिक ढंग से सोचा . समाधान के प्रयास किये. यहां तक कि चंबल के दस्युओं के समर्पण के लिए सबसे प्रभावी पहल की. जिसमें वह सफल भी रहे. सही मायने में वह आज भी युवाओं के आइ कॉन हैं.
बेशक समस्याएं बदल गयीं हैं. समय बदल गया है. इसके बाद भी जयप्रकाश का ये ध्येय वाक्य प्रेरित करने वाला है – जहां भी अन्याय हो, उसका विरोध कीजिए. उन्होंने जहां भी अन्याय देखी, उसका उन्होंने प्रभावी विरोध किया. चाहे 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन रहा हो या आपातकाल के दौर में निरंकुश सरकार के खिलाफ खड़ा होना. हर तरह के अन्याय के खिलाफ खड़ा होने की उनकी प्रवृत्ति ने उन्हें लोक नायक बना दिया. यही उनके जीवन की अंतिम पहचान भी है. (राजदेव पांडेय की बातचीत पर आधारित