दिल्ली की तख्त पर बिहार की जनता ने कई बार दखल दिये हैं. कांग्रेस हो या गैर कांग्रेसी दल, बिहार में राजनीतिक दलों के लिए आम चुनाव उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं. कम से कम आठ बार बिहार के मतदाताओं ने दिल्ली की तख्त पर हस्तक्षेप किया और सत्ता समीकरण को बदल दिया. 1977, 1980, 1989, 1996, 1999, 2004 और 2014 में बिहारी सांसदों की संख्या बल से केंद्र की सरकार प्रभावित हुई.
पहले तीन आम चुनावों में कांग्रेस का दबदबा रहा था. 1967 आते-आते बिहार की लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज करने वालों की तस्वीरें बदलने लगीं. 1951 में जहां कांग्रेस के 45, 1957 में 40 और 1962 में 39 सांसद जीत कर दिल्ली पहुंचे, वहीं 1967 के आमचुनाव में बिहार में कांग्रेस के लोकसभा पहुंचने वाले उम्मीदवारों की संख्या 34 रह गयी. 1977 के चुनाव में एकबार फिर बिहार की जनता ने अपनी ताकत दिखायी. दिल्ली का तख्त और ताज बदल गया. बिहार की लोकसभा की 54 सीटों में एक भी सीट कांग्रेस को नहीं मिल पायी. हालात पूरी तरह बदल गये. जिस इंदिरा गांधी को अपराजित माना जा रहा था, वह सत्ता से बेदखल हो गयीं. सरकार आयी जनता पार्टी की.
जनता पार्टी की सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी. मोरारजी सरकार और फिर चाैधरी चरण सिंह की सरकार आयी. 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए. जनता का मूड बदला और बिहार समेत देश में कांग्रेस का शासन लौट आया. बिहार की 54 लोकसभा सीटों में कांग्रेस के हिस्से तीस सीटें आयी. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए आम चुनाव में बिहार से 54 में कांग्रेस की झोली में 48 सीटें आ गयीं. यह कांग्रेस का चरम था. लेकिन, एक बार फिर इतिहास ने करवट लिया और बोफोर्स का मुद्दा पूरे देश में गरमाया रहा.
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1989 में जब चुनाव हुए तो बिहार की जनता का भी मन मिजाज बदला. कांग्रेस को महज चार सीटें मिली. देश में जनता दल की सरकार बनी. वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने. इस सरकार को भाजपा और वामदलों का भी सहयोग मिला. 1996 के चुनाव में फिर से राजन ीति ने करवट ली. बिहार में कांग्रेस को मात्र दो सीटें मिली. देश में गैर कांग्रेसी एचडी देवेगौड़ा की सरकार बनी. दो साल बाद फिर चुनाव हुए. 1998 में कांग्रस को बिहार में पांच सीटें मिली. आइके गुजराल प्रधानमंत्री बने. एक साल बाद ही एक बार फिर देश में मध्यावधि चुनाव हुआ. बिहार से गैर कांग्रेसी सांसदों की संख्या बढ़ी. भाजपा को 23 सीटें मिली. केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार बनी. इसके बाद के चुनाव में भाजपा के फीलगुड स्लोगन बिहार की जनता को रास नहीं आयी.
भाजपा को बिहार में मात्र पांच सीटें आयी. राजद यहां सबसे बड़ा दल बनकर उभरा. राजद के 22 सांसद लोकसभा पहुंचे और केंद्र में मनमोहन सिंह की अगुवायी में यूपीए-1 सरकार बनी. अगले चुनाव में यूपीए 1 में ताकतवर लालू प्रसाद की पार्टी धराशायी हो गयी. उसे महज चार सीटें मिलीं. केंद्र की नयी यूपीए 2 सरकार में लालू प्रसाद को कोई पद नहीं मिला. 2014 में एक बार फिर राजनीतिक बदलाव हुआ. बिहार की चालीस सीटों में भाजपा 22 सीटों पर चुनाव जीत गयी. मतदाताओं ने भाजपा के साथ उसकी सहयोगी पार्टी लोजपा के छह और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के दो सांसदों को चुनाव में जीत दिलायी. इस चुनाव में जदयू को महज दो सीटें आयीं.