पटना. देवी गौरी ने सर्वप्रथम पार्थिव शिवलिंग की पूजा की थी. मिथिला के घर घर में आज भी पूरे विधि विधान के साथ पार्थिव शिवलिंग की पूजा होती है. शिवरात्रि के दिन खास तौर पर महिलाएं पार्थिव शिवलिंग का निर्माण करती हैं और पुरूष उसकी पूजा करते हैं. शिवरात्रि के दिन मिथिला में मिट्टी से बने पार्थिव लिंग की पूजा सबसे अधिक प्रचलित है. इसमें पूजा के लिए हर बार मिट्टी का शिवलिंग बनाकर उसपर आवाहन तथा पूजन कर विसर्जित कर मिट्टी में मिला जाता है. पार्थिव शिवलिंग की पूजा को लेकर मिथिला में सबसे मानक ग्रंथ विद्यापति ठाकुर ने लिखा है. विद्यापति ने शैवसर्वस्वसार में पार्थिव शिवलिंग बनाने के लिए मिट्टी लाने से लेकर समग्र पूजन का विधान स्पष्ट किया है। उन्होंने ध्यान तथा पूजा का जो मन्त्र दिया है, वह आज भी उसी प्रकार व्यवहार में है.
विद्यापति रचित शैवसर्वस्वसार ग्रंथ के संबंध में पंडित भवनाथ झा कहते हैं कि मिथिला में पार्थिव शिवलिंग का प्रचलन प्राचीन काल से रहा है, लेकिन इसकी पूजा के लिए विधि विधान का दस्तावेजी प्रमाण 14वीं सदी में विद्यापति का लिखा हुआ मिलता है. पार्थिव शिवलिंग के लिए मिट्टी तैयार करने में ध्यान रखना होता है कि कंकड़, गोबर का अंश, केश, भूसा आदि अन्य पदार्थ न हो. केवल गोबर का शिवलिंग बनाकर उस पर रात्रि में सरसो के तेल से अभिषेक तो मारण आदि प्रयोगों के लिए किया जाता है, जो सामान्यतः निषिद्ध है.
पं भवनाथ झा कहते हैं कि पुराणों ने कलियुग में पार्थिव शिवलिंग की पूजा को श्रेष्ठ माना है. शिवपुराण की विश्वेश्वर संहिता के अध्याय 19 में कहा गया है कि जैसे नदियों में गंगा, देवों में महादेव, मंन्त्रों में ओंकार, श्रेष्ट है उसी प्रकार लिंगों में पार्थिव लिंग श्रेष्ठ है. मिथिला में आज भी पार्थिव शिवलिंग की दैनिक पूजा के साथ साथ विशेष अनुष्ठान प्रचलित है. छोटे-छोटे लिंग बनाकर 10×10 व्यवस्था में एक साथ जोड़कर 100 शिवलिंग की इस चौकोर आकृति को एक ईकाई माना जाता है. इसकी एक बार पूजा होती है. यदि अधिक संख्या में एक दिन पूजन करनी हो तो इसकी 10 चेकी को एक साथ रखकर पूजा जा सकता है. इसे मगध के क्षेत्र लखौरी कहते हैं. इसके अतिरिक्त वेदी के साथ एक शिवलिंग बनाकर भी पूजा तथा रुद्राभिषेक भी किया जाता है.
भगवान शिव की पूजा आर्य और अनार्य दोनों करते हैं, ऐसे में शिव पूजन की परंपरा अलग-अलग रही है. देवाधिदेव का स्वरूप इतना विशाल है कि उसे कोई जान नहीं सकता. देवताओं के बीच भी उनके स्वरूप को लेकर भ्रम था, तो स्वयं भगवान् शंकर एक अग्नि की ज्वाला के रूप में प्रकट हुए. ब्रह्म और विष्णु भी इसका आरम्भ और अंत नहीं जान सके तब देवों ने इसी अग्निस्तम्भ के रूप में शिव की उपासना आरम्भ की. यही शिवलिंग के नाम से प्रख्यात हुआ. इस शिवलिंग का आधारपीठ यानी अरघा यानी जलधरी देवी का स्वरूप है. इस प्रकार शक्ति के साथ संयुक्त शिव जगत् के कल्याणकारक हुए. मन्दिरों में स्थापित करने के लिए पत्थर, लकड़ी, धातु आदि के शिवलिंग बने, तो गृहस्थों के लिए घर में दैनिक पूजा हेतु पारद, स्वर्ण, स्फटिक आदि के शिवलिंगों का प्रचलन हुआ. सामान्य तौर पर नर्मदा नदी से प्राप्त नर्मदेश्वर शिव की दैनिक पूजा भारत में प्रचलन में आयी, लेकिन गौरी के मायके मिथिला में पार्थिव शिवलिंग पूजने की परंपरा रही है.