मिथिला अपनी लोक संस्कृति, पर्व-त्योहार व पुनीत परंपरा के लिए प्रसिद्ध रहा है. इसमें भाई-बहन के प्रेम के प्रतीक के कई त्योहार हैं. उनमें सामा-चकेवा काफी महत्वपूर्ण है. आस्था का महापर्व छठ समाप्त होने के साथ ही भाई-बहनों के अटूट स्नेह व प्रेम का प्रतीक सामा-चकेवा पर्व की शुरुआत हो चुकी है. जानकारी मुताबिक 19 नवंबर को कार्तिक पूर्णिमा के दिन सामा-चकेबा मनाया जायेगा. इसकी तैयारी छठपूजा के दूसरे दिन से ही प्रारंभ हो चुकी है. सामा-चकेवा की मूर्ति निर्माण में बालिका व नवयुवती पूरी तरह से लग गयी हैं. वर्तमान में सामा बनाने में कमी जरूर हुई है. लोग बना हुआ सामा ही खरीद रहे हैं. ग्रामीण क्षेत्रों का हर गली व मुहल्ला सामा-चकेवा के गीतों से गूंजित हो रहा है.
पारंपरिक लोकगीतों से गूंजने लगे गांव : मिथिलांचल में भाइयों के कल्याण के लिए बहना यह पर्व मनाती हैं. इस पर्व की चर्चा पुरानों में भी है. सामा-चकेवा पर्व की समाप्ति कार्तिक पूर्णिमा के दिन होती है. पर्व के दौरान बहनें सामा, चकेवा, चुगला, सतभईयां को चंगेरा में सजाकर पारंपरिक लोकगीतों के जरिये भाइयों के लिए मंगलकामना करती हैं. सामा-चकेवा का उत्सव पारंपरिक लोकगीतों से है. संध्याकाल में खास तौर पर गांव में तोहे बड़का भैया हो, छाऊर छाऊर छाऊर, चुगला कोठी छाऊर भैया कोठी चाऊर व साम चके साम चके अबिह हे, जोतला खेत में बैसिह हे से लेकर भैया जीअ हो युग युग जीअ हो आदि गीतों व जुमले से काफी मनोरंजन करते हैं.
मूर्ति बनाने में जुटे कुम्हार
भाई-बहन के प्रेम को दर्शाती लोक पर्व सामा चकेवा की मूर्ति की मांग गांव में विशेष तौर पर रहती है. इस दौरान सामा चकेवा, पौती, सतभईया आदि बनाने के लिए कुम्हार विशेष तौर पर जुटे रहते है. सामा -चकेवा की मूर्ति बना रहे कारीगर बताते हैं कि अब धीरे-धीरे मूर्ति की डिमांड कम होने लगी है. गांव के कई घरों में इस पर्व को लेकर विशेष रुचि नहीं रहती है. लेकिन इस वर्ष मूर्ति की मिट्टी कम होने के बावजूद कारीगर के द्वारा सैकड़ों सामा-चकेवा की मूर्ति बनायी गयी है. जिसकी कीमत 40-60 रुपये तक है.
इस पर्व में शाम होने पर युवा महिलाएं अपनी संगी सहेलियों के साथ मैथिली लोकगीत गाती हुईं अपने-अपने घरों से बाहर निकलती हैं. उनके हाथों में बांस की बनी हुई टोकरियां रहती हैं जिसमें मिट्टी से बनी हुई सामा-चकेवा, पक्षियों एवं चुगला की मूर्तियां रखी जाती है. मैथिली भाषा में जो चुगलखोरी करता है, उसे चुगला कहा जाता है.
आठ दिनों तक मनाया जाता है पर्व
मिथिला में लोगों का मानना है कि चुगला ने ही कृष्ण से सामा के बारे में चुगलखोरी की थी. सामा खेलते समय महिलाएं मैथिली लोक गीत गा कर आपस में हंसी-मजाक भी करती हैं. भाभी ननद के बीच लोकगीत की ही भाषा में मजाक भी होती है. अंत में चुगलखोर चुगला का मुंह जलाया जाता है और सभी महिलाएं पुनः लोकगीत गाती हुई अपने घर वापस आ जाती है. यह पर्व आठ दिनों तक मनाया जाता है और नौवें दिन बहने अपने भाइयों को धान की नयी फसल की चूड़ा-दही खिला कर सामा-चकेवा के मूर्तियों को तालाबों में विसर्जित कर देती हैं. गांवों में तो इसे जोते हुए खेतों में विसर्जित किया जाता है. यह उत्सव मिथिलांचल में भाई-बहन के अटूट प्रेम को दर्शाता है.
Posted by: Radheshyam Kushwaha