आशुतोष कुमार पांडेय
मुजफ्फरपुर : इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार, दीवार-ओ दर को गौर से पहचान लीजिए. इस गजल को मशहूर शायर शहरयार ने फिल्म ‘उमरांव जान’ के लिये लिखा था. इस गजल को सदाबहार अभिनेत्री रेखा पर फिल्माया गया था. आज भी इस गजल की दीवानगी लोगों के सर चढ़कर बोलती है. इस गजल में तखल्लुस ‘अदा ’ है, जिस पर लोग आज भी फिदा हैं. उत्तर बिहार की सांस्कृतिक और आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले मुजफ्फरपुर में भी एक ऐसी गली है, जहां कि गजल और ठुमरी गायिकाएं कभी अपने कद्रदानों से कहती थीं, दीवार- ओ दर को गौर से पहचान लीजिए. जी हां, बात हो रही है, शहर के मशहूर तवायफ मंडी चतुर्भुज स्थान की. हालांकि इस गली का नाम भगवान विष्णु के उस मंदिर की वजह से पड़ा, जो इस मंडी के बिल्कुल पड़ोस में हैं.
इतिहास है काफी पुराना
बिहार के इस शहर के इस गली का इतिहास भी मुगलकालीन है. इन गलियों में तवायफ और अब देह व्यापार के दलदल में धंस चुकी महिलाओं की संख्या दस हजार से भी ज्यादा है. इस जगह की पहचान ही तबले की थाप और घुंघरूओं की आवाज थी. अब जिस्म के बाजार में इसका तब्दील होना बदलते वक्त और मजबूरी की निशानी है. अब इन गलियों में मुजरा बीते कल की बात है. अंधी आधुनिकता की भौतिकवादी दौड़ ने इन गलियों में बदलाव की वह आंधी बहायी कि अब यहां की कला एक बाजारु चीज बनकर रह गयी. इस स्थान का इतिहास अपने आप में रोचकता को समेटे हुए है. जानकारों की मानें तो स्त्री चरित्र पात्रों को केंद्र बनाकर कालजयी उपन्यास लिख चुके शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को इसी जगह पारो की सहेली ‘सरस्वती’ पहली बार मिली थी. शरचचंद्र ने इन गलियों से लौटने के बाद ‘देवदास’ की रचना की.
बदल गयी है गली की रौनक
बदलते वक्त ने जब तबले की थाप और घुंघरूओं की आवाज को बदसूरत कर डाला. अब इस में मंडी तराशे गये गले से कद्रदानों के लिये गजल, ठुमरी और गीत नहीं निकलते. अब तो इस मंडी में जिस्म की आंच पर पकी हुई मजबूरी और भूख की ऐसी रोटी पकती है, जिससे पेट की आग बस शांत होती है. कभी घुंघरूओं के मधुर आवाज और तबले की थाप से इस मंडी की सुबह शुरू होती थी. सुबह भगवान चतुर्भुज के मंदिर की घंटी बजती थी और इस मंडी में कद्रदानों के लिये महफिलें सज जाती थी. अब ऐसा कुछ नहीं है. सूचना क्रांति ने इस मंडी में भी दस्तक दे दिया है. व्हाट्सएप्प और फेसबुक जिस्म की मंडी में सौदेबाजी के मुख्य उपकरण हैं. गली के दोनों तरफ बने संकरे कमरों में और दरवाजे पर बैठी कमसिन बालायें आने-जाने वाले को रिझाती हैं. कमरे के अंदर भले रिकार्ड बज रहा हो, लेकिन वास्तविकता में मजबूरी यह है कि सौदा करना पड़ता है.
मजबूरी में जीने को मजबूर तवायफ
बस्ती की मशहूर तवायफ कहती हैं कि क्या करें, जीने के लिये कौन सा उपाय करें. अब ना कोई गजल सुनता है और ना ही महफिल सजती है. अब तो बस जिस्म की भूख में लपलपाती जीभ और वासना की जिजीविषा लिये आंखें भेदती हैं. कोई दूसरा चारा नहीं है. अब किसी और तरीके से कमा नहीं सकते, क्या करें खुद सोचिए. कभी अपने नज्मों और गजलों से लोगों का दिल जीत लेने वाली चतुर्भुज स्थान की मशहुर तवायफ रहीं सावित्री देवी कहती हैं कि पहले लोग तवायफ को बड़ी इज्जत बख्शते थे. उन्हें दिनभर खिलाते पिलाते थे. महफिल सुबह से शुरू होकर रात तक सजती थी. अब वह बात कहां.
मंगला देवी भी अपना दर्द कुछ यूं बयां करती हैं-
वहीं कई सालों से महफिलों में अपनी आवाज और गजल का जादू बिखेर चुकी नीलम अपना दर्द गा कर सुनाती हैं.
स्थानीय पूर्व वार्ड पार्षदऔरसमाजसेवी रेयाज अंसारी कहते हैं कि इन्हें तवायफ नहीं कहा जाय. यह मजबूरी और गरीबी की मारी औरतें हैं जिन्हें किसी की मदद की जरूरत है.
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आज
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पूरे विश्व में पूरे शोर-शराबे के साथ मनाया जा रहा है. इन अंतहीन गलियों के अंधेरे को रोशनी कब मिलेगी किसी को पता नहीं. अपने जीवन की अंतिम पड़ाव को इसी गली में गुजार देने वाली कुछ बुजुर्ग तवायफ कहती हैं. मजबूरी की दहलीज पर आंसुओं के आरमां घुट के रह जाते हैं, पड़ता है वेवशी से वास्ता दिल के सभी आरमां टूट के रह जाते हैं.