Khudiram Bose Birth Anniversary: ‘’जज साहब… मैं आपको भी बम बनाना सिखा दूंगा’’, खुदीराम बोस की जयंति पर पढ़ें उनकी शौर्यगाथा
Khudiram Bose Birth Anniversary: शहीद खुदीराम बोस अपनी साहस और वीरता के लिए जाने जाते थे. एक बार उन्होंने जज को कहा था कि आप मेरे साथ चलें, मैं आपको बम बनाना सिखा दूंगा. आज, उनकी जयंति पर उनकी शौर्यगाथा पढ़ें.
Khudiram Bose Birth Anniversary: आजादी की लड़ाई में सबसे कम उम्र में फांसी पर चढ़ने वाले क्रांतिकारी के रूप में शहीद खुदीराम बोस को जाना जाता है. उनका जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल में मिदनापुर के हबीबपुर गांव में हुआ था. आज उनकी जयंति पर हम उनके क्रांतिकारी जीवन के बारे में जानेंगे. उन्होंने सिर्फ 9वीं तक ही पढ़ाई की. इसके बाद उन्होंने स्कूल छोड़ दिया था. इसके बाद वे रिवॉल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदे मातरम् के पर्चे बांटने में बड़ी भूमिका निभाई. माता-पिता की मृत्यु के बाद बड़ी बहन ने ही खुदीराम का पालन-पोषण किया. 1905 में जब बंगाल का विभाजन हो गया तब खुदीराम बोस ने सत्येंद्रनाथ बोस के नेतृत्व में अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत की थी.
जज की गाड़ी पर फेंका बम
18 अप्रैल 1908 को खुदीराम और उनके एक साथी बिहार के मुजफ्फरपुर के जज किंग्सफोर्ड को मारने के लिए निकल पड़े. दोनों साथियों ने मिलकर यह तय किया कि किंग्सफोर्ड जब बग्घी से वापस आएगा, तभी बम फेंक देंगे. जैसा दोनों ने तय किया था हुआ भी कुछ ऐसा ही, यानी जब बग्घी किंग्सफोर्ड के घर पहुंची तो दोनों ने बम फेंक दिया, लेकिन जज की जान बच गई. बता दें, जिस बग्घी पर खुदीराम बोस ने बम फेंका उसमें दो महिलाएं सवार थीं, जिनमें से एक की इस हमले में मौत हो गई. इसी घटना के चलते खुदीराम बोस को 1 मई 1908 को गिरफ्तार कर लिया गया था. बता दें, हत्या के इस मुकदमे के बाद अदालत ने खुदीराम को फांसी की सजा सुनाई.
मैं आपको भी बम बनाना सीखा दूंगा…
जज कॉर्नडॉफ की अदालत में जब सुनवाई के दौरान खुदीराम से यह प्रश्न किया गया कि क्या तुम फांसी की सजा का मतलब जानते हो? इस पर उन्होंने कहा कि इस सजा और मुझे बचाने के लिए मेरे वकील की दलील दोनों का मतलब अच्छी तरह से जानता हूं. मेरे वकील ने कहा है कि मैं अभी कम उम्र का हूं. इस उम्र में बम नहीं बना सकता. जज साहब मेरी आपसे गुजारिश है कि आप खुद मेरे साथ चलें. मैं आपको भी बम बनाना सिखा दूंगा. अदालत ने खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाने के साथ ऊपर की अदालत में अपील का वक्त भी दिया. हालांकि, ऊपरी अदालतों ने जिला अदालत के फैसले पर ही मुहर लगाई और 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई.