पटना : मिथिला का इलाका राम के साथ साथ कृष्ण की भक्ति के लिए भी प्रसिद्ध है. मिथिला में कहीं कहीं तो कृष्णाष्टमी उत्सव पूरे 15 दिनों तक भी चलता है. मिथिला में एकादशी से पूर्णिमा तक कृष्णजन्म उत्सव मनाने की परंपरा रही है. वैसे अधिकतर जगहों पर अब छह दिनों का झूलन उत्सव का आयोजन होता है. मिथिला की महारानी राजलक्ष्मी के जीते जी तो झूलन का बड़ा आयोजन दरभंगा में होता था, लेकिन आज भी गांव गांव में पूरे भक्तिभाव से कृष्णाष्टमी का व्रत और पूजन किया जाता है.
मैथिली शोधकर्ता और रिजर्व बैंक के सेवानिवृत पदाधिकारी रमानंद झा रमण इस संदर्भ में कहते हैं कि मिथिला में राम नहीं थे, लेकिन कृष्ण थे. कृष्ण की परंपरा यहां पुरातन काल से पूजनीय रही है. इस परम्परा में मनबोध ‘कृष्णजन्म’ लिखे. कृष्ण का प्रसार घर-घर में हुआ है. ‘कृष्णजन्म’ यहां के लोककण्ठ में हैं. कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय से शिक्षाप्राप्त डॉ पंडित जीवनाथ झा ने कहा कि कृष्ण भक्ति की गृहस्थ परंपरा मिथिला में रही है. वैसे जगन्नाथ संप्रदाय के लोगों का भी यह इलाका रहा है.
महावीर मंदिर पटना के प्रकाशन विभाग के प्रमुख पंडित भवनाथ झा ने इस संदर्भ में विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि मिथिला में भगवान् कृष्ण के उपासना की परंपरा पुरानी रही है. 8-9वी शती के डाकवचन में प्रसिद्ध है-
सुत्ता, उट्ठा पाँजरमोड़ा, ताही बीचै जनमल छोड़ा.
बतहाक चौदह, बतहीक आठ, बिना अन्न के जीवन काट.
इसमें क्रमशः हरिशय़न एकादशी, देवोत्थान एकादशी, कर्माधर्मा एकादशी और छोड़ा के जन्म का पर्व अर्थात् श्रीकृष्णाष्टमी का उल्लेख प्रमुख व्रत के रूप में किया गया है. इसके अतिरिक्त शिव की चतुर्दशी तिथि तथा दुर्गापूजा का महाष्टमी के दिन भी निश्चित रूप से व्रत का लोक-विधान किया गया है. मिथिला के निबन्धकारों ने कृष्णाष्टमी व्रत को नित्य-व्रत के रूप में मान्यता दी है. नित्य व्रत उसे कहते हैं जिसे न करने से प्रायश्चित्त करना पड़े. यह मिथिला की शास्त्रीय मान्यता है.
मध्यकालीन मिथिला में जगन्नाथ सम्प्रदाय का पर्याप्त प्रभाव मिलता है. नैयायिक उदयन, गोविन्द ठाकुर, श्रीधर उपाध्याय आदि महान् विभूतियों के द्वारा जगन्नाथ यात्रा से सम्बन्धित कथाएँ मिलतीं हैं. मिथिला में वैष्णव सम्प्रदाय अपने में विशिष्ट महत्व रखता है. मिथिला का परम्परा की विशेषता है कि यहां पंचदेवताओं के समूह में विष्णु की पूजा न होकर अलग से पूजा होती है. मिथिला के साहित्य पर बंगाल के चैतन्यदेव तथा आसाम के शंकरदेव की कृष्णभक्ति परम्परा का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है. मिथिला के परमहंस विष्णुपुरी, रोहिणीदत्त गोसांई आदि श्रेष्ठ कृष्णभक्त माने गये हैं. महाकवि विद्यापति, गोविन्द दास, साहेब रामदास आदि सन्तों ने भी कृष्णभक्ति परम्परा में अनेक पदों की रचना की है. रोहिणीहत्त गोसांई की एक छोटी रचना की गम्भीरता देखी जा सकती है
आयाहि हृदयारण्यमसन्मतिकरेणुके आयाति
याति गोविन्दभक्तिकण्ठीरवी यतः।।
अर्थात् अरी दुर्बुद्धि रूपी हथिनी, मेरी हृदय रूपी जंगल में तुम आओ न, यहाँ तो श्रीकृष्ण की भक्ति रूपी सिंहनी आया-जाया करती है!
posted by ashish jha