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कौन था महिषासुर,जिसे मारने को मायके आयी थी मां गौरी, कैमूर और मिथिला का क्या है मां दुर्गा से रिश्ता

महिषासुर ब्रह्म-ऋषि कश्यप और दनु का पोता और रम्भ का पुत्र तथा महिषी का भाई था. एक महर्षि परिवार में जन्म लेने के बावजूद अपने कर्म से वो दानव था. उसके संस्कार परिवार से भिन्न थे. ब्रम्हा का महान भक्त महिषासुर जैसे जैसे ताकतवर हुआ वो धर्म को त्यागता गया.

पटना. महिषासुर ब्रह्म-ऋषि कश्यप और दनु का पोता और रम्भ का पुत्र तथा महिषी का भाई था. एक महर्षि परिवार में जन्म लेने के बावजूद अपने कर्म से वो दानव था. उसके संस्कार परिवार से भिन्न थे. ब्रम्हा का महान भक्त महिषासुर जैसे जैसे ताकतवर हुआ वो धर्म को त्यागता गया. लोगों के बीच एक धोखेबाज राक्षस (दानव) के रूप में जाना गया, जो अपना चाल चरित्र और चेहरा बदलकर अधार्मिक कार्यों को किया करता था. असुरों का राजा बन कर वो त्रिलोक विजय की इच्छा करने लगा. इसके लिए वो मानव जाति पर कहर बरपाने लगा. एक-एक कर सारे देवता उससे हारने लगे. कोई उपाय न मिलने पर देवताओं ने उसके विनाश के लिए शक्ति और पार्वती की आराधना की. शिव ने शक्ति को तैयार किया, जिसे दुर्गा के नाम से भी जाना जाता है.

ब्रम्हा का महान भक्त था महिषासुर

महिषासुर सृष्टिकर्ता ब्रम्हा का महान भक्त था और ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता. महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को परेशान करने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा. उसने स्वर्ग पर एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर कब्ज़ा कर लिया तथा सभी देवताओं को वहां से खदेड़ दिया. देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुंचे. सारे देवताओं ने फिर से मिलकर उसे फिर से परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गये.

देवी पार्वती को सौंपी गयी जिम्मेदारी

देवता सर्वशक्तिमान होते हैं, लेकिन उनकी शक्ति को समय-समय पर दानवों ने चुनौती दी है. दैत्यराज महिषासुर ने भी देवताओं को पराजित करके त्रिलोक पर अधिकार कर लिया था. देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा है. भगवान विष्णु और भगवान शिव अत्यधिक क्रोध से भर गये थे. ब्रह्मा, विष्णु और शिव ने मां गौरी से महिषासुर के वध का आग्रह किया. समस्त देवताओं के आवेदन पर प्रकट हुई देवी दुर्गा को देखकर पीड़ित देवताओं की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा.

महिषासुर के अंत के लिए हुई उत्पत्ति

भगवान शिव ने त्रिशूल देवी को दिया. भगवान विष्णु ने भी चक्र देवी को प्रदान किया. इसी प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र देवी के हाथों में सजा दिये. इंद्र ने अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घंटा देवी को दिया. सूर्य ने अपने रोम कूपों और किरणों का तेज भरकर ढाल, तलवार और दिव्य सिंह यानि शेर को सवारी के लिए उस देवी को अर्पित कर दिया. विश्वकर्मा ने कई अभेद्य कवच और अस्त्र देकर महिषासुर मर्दिनी को सभी प्रकार के बड़े-छोटे अस्त्रों से शोभित किया.

दानवों से मानवता को मुक्ति दिलाने मायके आयी थी दुर्गा

नवरात्रि का त्योहार महिषासुर और देवी दुर्गा के बीच इस युद्ध को दर्शाता है, जिसका आरंभ प्रतिपदा से और समापन विजय दशमी में होता है. विजया दशमी महिषासुर के अंत का उत्सव है. “बुराई पर अच्छाई की विजय” की यह कहानी सनातन धर्म, विशेष रूप से शाक्त सम्प्रदाय में गहरी प्रतीकात्मकता रखती है. देवी पार्वती ने उसका वध कर दिया. इस कारण उन्हें महिषासुरमर्दिनी (महिषासुर का वध करने वाली) की देवी की उपाधि प्राप्त हुई. मां गौरी हिमालय की पुत्री थी. ऐसे में बिन्ध पर्वतों पर डेरा डाले दावनों से त्रिलोक की रक्षा के लिए गौरी ने मायके आने का फैसला किया.

इच्छाधारी था महिषासुर तो विशालकाय रूपवान स्त्री थी दुर्गा 

देवी दुर्गा महिषासुर से त्रिलोक को मुक्त करने के लिए मायके आयी. दुर्गा के मायके आते ही महिषासुर ने उनपर आक्रमण कर दिया. अपने योग से महिषासुर ने इच्छाधारी रूप धारण करने का बल पा लिया था. इस वजह से महिषासुर इच्छानुसार जब चाहे भैंस और जब चाहे मनुष्य का रूप धारण कर सकता था. महिषासुर ने देखा कि एक विशालकाय रूपवान स्त्री अनेक भुजाओं वालीं और अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर शेर पर बैठकर अट्टहास कर रही हैं. महिषासुर की सेना का सेनापति आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा.

फिर हुआ महिषासुर से युद्ध

उदग्र नामक महादैत्य भी 60 हजार राक्षसों को लेकर इस युद्ध में कूद पड़ा. महानु नामक दैत्य एक करोड़ सैनिकों के साथ, अशीलोमा दैत्य पांच करोड़ और वास्कल नामक राक्षस 60 लाख सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़े. सारे देवता इस महायुद्ध को बड़े कौतूहल से देख रहे थे. दानवों के सभी अचूक अस्त्र-शस्त्र देवी के सामने बौने साबित हो रहे थे, लेकिन देवी भगवती अपने शस्त्रों से राक्षसों की सेना को बींधने बनाने लगीं. ऐसे में उसकी दुर्गा से विभिन्न रूपों में नौ दिनों तक युद्ध हुआ. दसवें दिन मां दुर्गा ने उसका वध कर दिया. सभी देवी-देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से फूलों की वर्षा की. इसी उपलक्ष्य में सनातन धर्म के लोग दस दिनों का दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की पूजा करते हैं. दसवें दिन को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है. जो बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है.

दो अध्यायों में मिलता है बिहार का जिक्र

पं भवनाथ कहते हैं कि दुर्गासप्तशती के दो अध्यायों में वर्तमान बिहार का जिक्र मिलता है. दुर्गासप्तशती के पांचवे अध्याय में जहां कैमूर पर्वत माला पर शुम्भ-निशुम्भ युद्ध का जिक्र है, वहीं 12वें अध्याय में दुर्गा के मायकेवालों से फिर संकट में आने का वायदा है. दुर्गा ने विदा लेते वक्त मायकेवालों को आश्वासन दिया कि जब जब मायके पर संकट आयेगा मैं हर बार आउंगी.

भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि।

मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा।

दुर्गासप्तशती के 12वें अध्याय के मन्त्र 46 में स्पष्ट उल्लेख है कि 100 वर्षों तक अकाल पड़ने के उपरांत में अयोनिजा के रूप में आउंगी. मां सीता को अयोनिजा कहा जाता है. इसी प्रकार पंचम अध्याय में कैमूर पर्वत माला पर दानवों से युद्ध का जिक्र मिलता है. ऐसा माना जाता है कि मां मुंडेश्वरी स्थान पर ही दुर्गा का शुम्भ नामक दानव का वध किया था.

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