होली के बाद, चैता गाकर झूमते रहे लोग
नवादा (नगर) : अपने पारंपरिक अंदाज में बुजुर्गों के कंधों पर सवार होकर होली बीतगयी. इसके साथ ही अगले एक माह के लिए चैता ने दस्तक दे दिया है. दोनों त्योहारों का हमारी संस्कृति से गहरा लगाव है. सनातन संस्कृति में यह नये साल के आगमन का प्रतीक भी है. इसके हर रंग हमारी संस्कृति […]
नवादा (नगर) : अपने पारंपरिक अंदाज में बुजुर्गों के कंधों पर सवार होकर होली बीतगयी. इसके साथ ही अगले एक माह के लिए चैता ने दस्तक दे दिया है. दोनों त्योहारों का हमारी संस्कृति से गहरा लगाव है.
सनातन संस्कृति में यह नये साल के आगमन का प्रतीक भी है. इसके हर रंग हमारी संस्कृति की विविधता को दर दरशाता है. होली का हर आयाम हमें अपनी मजबूत परंपराओं और संस्कृति से बांधे रखता है. होलिका दहन, मिट्टी-कादो से लिपटा शरीर, बहुरंगी हुआ चेहरा, उड़ता गुलाल और फिर मुंबइया स्टाइल को अपनाता मटका फोड़ होली.
इन सबसे साथ झुमटा का बड़ा खास रोल है. यही हमें एकता के मजबूत डोर में बांधे रखता है. विशुद्ध ग्रामीण परिवेश का यह त्योहार समय के साथ करवटें लेनी शुरू कर दी है. तीन दिनों तक लगातार गाये जाने वाले होली गीतों की रसमधुर आवाज अब कम ही सुनायी पड़ती हैं. पूरे माह तक गाया जाने वाला फगुआ तो कब का इतिहास बन गया. बुढ़वा होली भी इन्हीं पन्नों में सिमटा पड़ा है. मानों अपने चौथेपन की चंद सांसें गिन रहा हो.
शहरीकरण ने पूरी तरह दूसरे त्योहारों की तरह इसे भी अपनी आगोश में ले रखा है. बाजारवाद का हिस्सा बना होली पर अब परंपराओं का धमक कम ही सुनायी पड़ती है. दिल को छू जाने वाले होली गीतों के बोल कभी हर उम्र,अवस्था और रिश्तों को गुदगुदाता था. अब अश्लील गीतों ने अपना कब्जा जमा लिया है. यह रिश्तों से दूर एकांकीपन का प्रतीक है. ऐसे ही माहौल ने होली मिलन के नये एडिशन को जन्म दिया है.
जहां सब कुछ बनावटीपन लिये होता है. यही मिलन समारोह हमारी बौद्धिक पहचान को नया प्लेटफाॅर्म दे रहा है. हालांकि यह पहचान हर समारोह में बदलता दिखता है,पर यही आज की जरूरत बन चुका है. नयी फसलों के घर आने की खुशी का भी नाम है होली.