इन पांच बिंदुओं से इस गुत्थी को समझने की कोशिश करते हैं
पटना, (अजय कुमार). बिहार में लोकसभा के छठे चरण के मतदान के बाद कोई भी गठबंधन आश्वस्त होने की स्थिति में नहीं है कि उसे इस चुनाव में कितनी सीटें मिलने जा रही हैं. अब एक जून को अंतिम व सातवें चरण के तहत आठ सीटों पर मतदान होना बाकी है. लेकिन जहां तक सवाल राजनीतिक दलों के आकलन को लेकर है, तो वे जीतने वाली सीटों की संख्या को लेकर क्यों नहीं इत्मीनान हो पा रहे हैं? वैसे, चुनाव मैदान में एनडीए (NDA) या इंडिया (INDIA) की ओर से दावा किया जा रहा है कि उनके ही पक्ष में लहर है. दोनों ही गठबंधनों का यह भी दावा है कि उनकी सभी चालीस सीटों पर जीत होने जा रही है. 2019 के संसदीय चुनाव में किशनगंज को छोड़कर सभी 39 सीटों पर एनडीए ( NDA ) के घटक दलों की जीत हुई थी. भाजपा को सभी 17, जदयू को 16 और लोजपा को 6 सीटों पर कामयाबी मिली थी. अब हम लौटते हैं इस सवाल पर कि क्यों राजनीतिक दल जीत के दावे को लेकर आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं. इसे हम इन पांच बिंदुओं से समझने की कोशिश करते हैं:
1. किसी के समर्थन और विरोध में लहर का नहीं होना
2014 और 2019 के मुकाबले इस चुनाव में कोई लहर नहीं है. इसके पहले के दोनों चुनाव मुद्दों के लहर पर सवार होकर लड़े गये थे. 2014 में कांग्रेस के कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा था, तो 2019 में पुलवामा की घटना के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक का राष्ट्रवादी भावबोध था. इन दोनों चुनाव में ये मुद्दे प्रत्यक्ष दिख रहे थे और भाजपा उसे ड्राइव कर रही थी. किसी को यह बताने की भी जरूरत नहीं थी कि हवा का रुख कैसा है? किसकी लहर है और चुनाव में क्या होने जा रहा है. दोनों ही चुनाव के नतीजों ने जनभावना का इजहार किया था. लोग बदलाव चाहते थे. वे आतंक के खिलाफ मुंहतोड़ जवाब देना चाहते थे. पर इस चुनाव में वैसा कोई मुद्दा मतदाताओं को अपनी जद में नहीं ले पा रहा है.
2. क्या वोटर साइलेंट हैं?
चुनाव के दौरान एनडीए ( NDA ) या महागठबंधन की सभाओं में भीड़ जुटने के बावजूद वोटरों की चुप्पी को सबने रेखांकित किया. बिहार पहुंचे दर्जनों पत्रकारों की टीम अलग-अलग इलाकों में रिपोर्टिंग के लिए गयी. उन्होंने माना कि वोटर मुखर होने के बदले चुप ज्यादा लगे. उसकी चुप्पी के कारण यह अनुमान लगाने में मुश्किल होती रही कि ऐसे वोटर किसका रुख करेंगे. उनकी पसंद का उम्मीदवार कौन होगा? ऐसे सवालों के जवाब अब तक नहीं मिले हैं. वोटरों की चुप्पी से यह भी अनुमान लगाया गया कि उन्होंने अपना मन बना लिया है. उन्होंने तय कर रखा है कि वे किसको वोट देने जा रहे हैं. यानी उन्होंने अपने फैसले को मुट्ठी में बांध लिया है.
3. अब वोटरों के फैसले पर बात
बिहार में आमतौर पर उम्मीदवारों की जीत-हार में जाति और सामाजिक समीकरण की आधार भूमिका मानी जाती है. इस लिहाज से देखें तो अलग-अलग सामाजिक समूहों की प्रतिबद्धता के बारे में किसी भ्रम की स्थिति नहीं रही. राजनीतिक दलों के हिसाब से जातियों की प्रतिबद्धता के तयशुदा फॉर्मेूले खींचे हुए हैं. एनडीए ( NDA ) और महागठबंधन के घटक दलों के आधार वोट निर्धारित हैं. इसी आधार पर वोटों का अनुमान करते हुए सामाजिक समीकरण को विस्तार देने की कोशिश की जाती है. चुनाव में उतरने वाली पार्टियां सोचती हैं कि फलां जाति को अपने साथ कर लिया जाये, तो हमारा वोट बढ़ जायेगा. लोकसभा चुनाव के ठीक पहले विभिन्न जातियों के सम्मेलन होने लगे थे. हर दिन कोई न कोई जातीय सम्मेलन होने लगे थे. इसे जातियों की गोलबंदी के संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
4. तो चुप्पा वोटर किसके साथ है?
अनेक ऐसी जातियां हैं, जिनकी राजनीति प्रतिबद्धता छिपी हुई नहीं है. ये जातियां इस चुनाव में भी मुखर होकर बता रही थीं कि देश में किस तरह की राजनीति या नेता की जरूरत है. पर कई ऐसी भी जातियां हैं, जिनकी प्रतिबद्धता किसी खास दल के साथ होने के बावजूद वे बोलती नहीं हैं. ऐसा माना जा रहा है कि पांच किलो अनाज प्राप्त करने वाला तबका इस योजना से प्रभावित है. ये गरीब लोग हैं और अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता उजाकर नहीं होने देना चाहते हैं. राज्य में इबीसी के दायरे में ऐसी जातियां आती हैं. बातचीत में इनका रुझान एनडीए ( NDA ) की ओर झुका हुआ दिखता है. यह समूह प्राय: सभी राजनीतिक दलों के केंद्र में है. इसे अपने साथ जोड़ने की कोशिश सभी दल कर रहे हैं.
5. एनडीए और इंडिया को किस पर भरोसा
इसमें दो राय नहीं कि अपने सामाजिक आधारों के अलावा दोनों ही गठबंधनों को छोटी-छोटी जातियों पर भरोसा है. हाजीपुर में एक वोटर की टिप्पणी गौर करने वाली थी. उन्होंने कहा: एनडीए को राम जी पर और एनडीए के उम्मीदवारों को पीएम मोदी के चेहरे पर भरोसा है. महागठबंधन के नेताओं से बात करने पर पता चलता है कि वे राशन फैक्टर को अपने लिए नुकसानदेह मानते हैं. पर स्थानीय जाति समीकरण, उम्मीदवारों के खिलाफ वोटरों की नाराजगी और रोजगार-महंगाई से परेशान वोटरों के हिस्से को अपने साथ होने का दावा करते हैं. इस दावे-प्रतिदावे की हकीकत चार जून को सामने आयेगी जब इवीएम से वोट निकलने लगेंगे.