Nitish Government : नीतीश इस बार तोड़ेंगे श्रीबाबू का रिकॉड, जानें कितने दिनों का बचा है अंतर
1985 में पहली बार बिहार विधानसभा पहुंचे नीतीश कुमार की 30 वर्षों की राजनीतिक यात्रा कम रोचक नहीं रही.
मिथिलेश, पटना : बिहार के वोटरों ने एक बार फिर सुशासन की सरकार के मुखिया नीतीश कुमार पर अपना भरोसा जताया है. नीतीश कुमार ने इस बार सातवीं बार प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर रिकाॅर्ड स्थापित किया है. दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों में सिक्किम के पवन चामलिंग और पश्चिम बंगाल के पूर्व सीएम ज्योति बसु का रिकाॅर्ड पीछे रह गया है.
इस बार उनकी सरकार 2025 तक चली तो बिहार में सबसे अधिक दिनों तक मुख्यमंत्री रहने वाले श्रीकृष्ण सिंह के 5456 दिनों का रिकाॅर्ड को पार कर जायेंगे. अभी तक नीतीश कुमार श्रीकृष्ण सिंह के रिकाॅर्ड से थोड़े ही पीछे हैं. नीतीश कुमार अब तक 5220 दिनों तक राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. अगले साल जुलाई महीने में वह सबसे अधिक दिनों तक मुख्यमंत्री रहने वाले प्रदेश के एकमात्र नेता होंगे.
पंद्रह वर्षों का मुख्यमंत्री पद का सफर नीतीश कुमार के लिए उतार-चढ़ाव का भी रहा. 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद एक समय ऐसा भी आया जब नीतीश कुमार ने अपना पद त्याग दिया. उनके करीबियों की मानें, तो नीतीश कुमार को राजनीति से विरक्ति होने लगी थी. इसी दौरान उन्होंने अपने कैबिनेट सहयोगी जीतन राम मांझी को सीएम की कुर्सी सौंपने का ऐतिहासिक निर्णय लिया था.
हालांकि, बाद में उन्होंने इस बात को खुले तौर पर स्वीकारा कि उनका मांझी को सीएम बनाने का फैसला राजनीतिक तौर पर सही साबित नहीं हुआ. 1985 में पहली बार बिहार विधानसभा पहुंचे नीतीश कुमार की 30 वर्षों की राजनीतिक यात्रा कम रोचक नहीं रही. डाॅ लोहिया और जेपी के समाजवादी विचारधारा से ओत- प्रोत नीतीश कुमार की गिनती 1990 के दशक में लालू प्रसाद के करीबी नेताओं में होती थी.
1994 में कुर्मी रैली के दिन से लालू प्रसाद से अलग हुए नीतीश कुमार के लिए बिहारी की जातीय तपिश में उबली राजनीति इतनी आसान भी नहीं थी. बाद में वह भाजपा के दिग्गज नेता अटल बिहारी बाजपेयी के करीब आये. अटल बिहारी बाजपेयी ने 24 पार्टियों को शामिल कर एक बड़ा गठबंधन तैयार किया. नीतीश उनके सबसे बड़े और भरोसे के साथी साबित हुए. 17 वर्षों तक उनका रिश्ता रहा.
2013 में जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार विधानसभा का चुनाव जीता और उनकी धमक राष्ट्रीय राजनीति में दिखने लगी और भाजपा के चेहरे में बदलाव नजर आने लगा, तो नीतीश कुमार ने अपनी 17 वर्षों की दोस्ती को ठुकराने में पलभर भी देर नहीं की. उन्होंने एनडीए से अलग होने का कड़वा फैसला लिया और खुद अपने दम पर सरकार चलाने की कोशिश की.
2013 की इस राजनीतिक उठापटक के बाद आया लोकसभा का चुनाव. इस चुनाव में नीतीश कुमार पराजित हो गये. फिर आया राज्यसभा का चुनाव. इसी समय वह अपने अब तक के घोर विरोधी लालू प्रसाद के एक बार फिर निकट आये.
परिस्थितियां बदलीं, विधानसभा के उपचुनाव में लालू और नीतीश एक मंच पर हाजीपुर के सुभई की सभा में जब खुले तौर पर आये तो राजनीतिक पंडितों ने मंडल राज पार्ट 2 के रूप में इसे देखा. कांग्रेस और लालू के साथ नीतीश एक कदम चले, तो जनता दो कदम आगे चली. 2015 के विधानसभा चुनाव में जदयू, राजद और कांग्रेस एक साथ आये. नीतीश कुमार ने इसे महागठबंधन का नाम दिया.
चुनाव हुए तो देेश में अब तक जीत का रिकाॅर्ड बनाने वाली भाजपा बिहार में महागठबंधन के सामने चारों खाने चित हो गयी. जनता ने महागठबंधन को हाथोंहाथ लिया. 243 सदस्यों वाली विधानसभा में महागठबंधन के 178 विधायक चुनाव जीत गये. भाजपा महज 53 सीटों पर सिमट कर रह गयी, पर बिहार चुनाव का क्लाइमेक्स अभी खत्म नहीं हुआ था. नीतीश कमार पांचवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बने.
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कुछ ही दिनों में दोनों दलों की दूरियां बढ़ने लगी. मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार राजद के साथ कम्फर्ट फील नहीं कर रहे थे. उन्होंने महागठबंधन से अलग होने का फैसला लिया और उसी दिन इस्तीफा भी दिया और अगले ही दिन एनडीए की सरकार बन गयी. एक बार फिर भाजपा सरकार में शामिल हुई. इस बार के विधानसभा के चुनाव में भाजपा और जदयू का बराबरी का समझौता हुआ.
जदयू 122 और भाजपा 121सीटों पर चुनाव लड़ने को राजी हुई. भाजपा अपने कोटे की 121 सीटों में 11 सीटें वीआइपी को दी और जदयू कोटे से सात सीट पूर्व सीएम जीतन राम मांझी की पार्टी हम को मिली.
Posted by Ashish Jha