मिथिलेश, पटना
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2016 में शराबबंदी का जो कठोर फैसला लिया था, वह अचानक लिया गया कोई प्रशासनिक निर्णय नहीं था. इसके पीछे वर्षों पहले स्कूली जीवन से लेकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दिनों के दौरान आमलोगों के दुखों को देखकर जो पहला पाठ उन्होंने पढ़ा था, उसी की टीस छिपी थी. मुख्यमंत्री के जीवन पर उनके दोस्त उदय कांत की लिखित किताब के अंश बताते हैं कि जब इंटर पास होने के बाद नीतीश कुमार का दाखिला पटना इंजीनियरिंग कॉलेज में हुआ, तो उन्होंने कॉलेज छात्रावास में रहने की बजाय शहर के मुसल्लहपुर स्थित कृष्णा लॉज में रहना तय किया. यहां गुजारे वक्त ने उन्हें आम मेहनतकश लोगों के जीवन की कहानी से रू-ब-रू होने का मौका दिया.
कृष्णा लॉज की पहली मंजिल के पूर्वी छोर का आख़िरी कमरे की खिड़की के ठीक नीचे मछुआरों और वैसे ही छोटे-मोटे काम करनेवाले लोगों की घनी बस्ती थी. नीतीश बताते हैं, पहली बार जाना कि गरीबी और घोर अभावों में भी जीवन सरिता अबाध रूप से बहती रहती है. सवेरे मुहल्ले के सारे पुरुषों के काम पर चले जाने के बाद, वहां से दिनभर उठता स्वर हमेशा सप्तरंगी होता था. शाम ढलने से पहले से ही गलियों से कोयले का दमघोंटू धुआं उठना शुरू हो जाता था. रात गहराने के साथ ही निर्दयता से पीटी जा रही महिलाओं और बच्चों के हृदय विदारक हाहाकार के स्वरों से मैं कभी कोई समझौता या समन्वय नहीं कर पाया. प्राय: रोज शाम को शराब के नशे में धुत्त घर लौटा हर पुरुष अपने परिवार से अकल्पनीय रूप से वहशियाना व्यवहार करता था.
नीतीश कुमार के मुताबिक मुझे तब से ही समझ में आने लगा था कि नीचे पसरी गरीबी और जिल्लत की पहली वजह अशिक्षा नहीं बल्कि सिर्फ नशाखोरी ही है. यह बात भी समझ में आने लगी थी कि आख़िर गांधी जी और लोहिया नशाबंदी के ऐसे बड़े हिमायती क्यों थे. बाबूजी के नशाबंदी के लिए आंदोलन करने में जेल जाने की घटना से नीतीश कुमार के मन में यह बीज पड़ गया था कि समय आने पर शराबबंदी के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाकर भी पूरी ताकत से काम करेंगे.
नीतीश कुमार कहते हैं, प्रकृति ने जब यह मौका दे दिया है, तो मैं प्राणपण से लगकर जनता के सक्रिय सहयोग से यह अभियान चला रहा हूं, बाकी सफलता तो ऊपर वाले के हाथों में है. नशाबंदी को लेकर उनके मन में यह बात सरकार में आने के शुरुआती दिनों से थी कि अगर अन्य राज्यों की तरह यह सब ऐसे ही बिहार में भी चलता रहता, तो एक पूरी पीढ़ी के बर्बाद होने के पूरे आसार थे. राज्य में शराबखोरी जारी रखना उसके सिद्धांतों से ऐसा समझौता था, जिसे उनका जमीर कबूल नहीं कर पा रहा था.
कृष्णा लॉज के दिनों से ही शराब से नफरत की सोच में रही-सही कमी पटना में रहने वाले बड़े जीजाजी ने पूरी कर दी. नीतीश के वे बेकारी और मुफलिसी के दिन थे, जबबख्तियारपुर से पटना आने में देर हो जाने से, कभी-कभी बड़ी दीदी के घर रुक जाना होता था. दीदी और जीजाजी माता-पिता से भी बढ़कर स्नेह देते थे. बातचीत में जीजाजी को कहा था कि अवसर आने पर मैं शराब पर पूर्णप्रतिबंध लगवाने की जरूर कोशिश करूंगा. जवाब में जीजाजी बड़े अंदाज में कहते थे, न नौ मन तेल होई आ न राधा नाची!
सरस्वती पूजा आते ही बख्तियारपुर की गलियों, कूचों और सड़कों पर नशेड़ियों का राज हो जाता था. इस फागुन मास के पूरे तीस दिन की सबसे बड़ी त्रासदी होती थी नशाखोरी और उसके दुष्प्रभाव. अकारण आपसी सर फुटौवल, मारपीट, घर की महिलाओं व बच्चों की बेवजह कुटम्मस रोजमर्रे की सामान्य बात हो जाती थी. सुबह से शाम तक ठर्रे और शराब की दुकानों पर भीड़ होती थी. हम जैसे किशोरों के लिए ये किसी दुःस्वप्न सा भयावह होते थे.