पटना से मात्र 40 किमी दूर 3 रुपये किलो बिक रहा नेनुआ
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक ल में मैं अपने गांव गया था. वहां तीन रुपये किलो नेनुआ बिकते देखा. यहां अपने निकटतम बाजार खगौल में हम बीस रुपये में डेढ़ किलोग्राम नेनुआ खरीदते हैं. इतनी ही दूरी में दामों का इतना बड़ा अंतर? यह बात सिर्फ नेनुआ पर ही लागू नहीं होती. किसान अपने अनेक उत्पाद […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
ल में मैं अपने गांव गया था. वहां तीन रुपये किलो नेनुआ बिकते देखा. यहां अपने निकटतम बाजार खगौल में हम बीस रुपये में डेढ़ किलोग्राम नेनुआ खरीदते हैं. इतनी ही दूरी में दामों का इतना बड़ा अंतर? यह बात सिर्फ नेनुआ पर ही लागू नहीं होती. किसान अपने अनेक उत्पाद लागत मूल्य से कम पर बेचने को अभिशप्त हैं. धान और गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय है. पर उनमें भी सरकारीकर्मियों की साठगांठ से बिचौलिया अधिकतर किसानों को लूट लेते हैं. उबारने के सरकारी प्रयासों के बावजूद खेती कुल मिलाकर अलाभकर पेशा बनती चली जा रही है. यही हाल पूरे देश का है. क्योंकि सरकारी प्रयास काफी नहीं हैं. साथ ही सिस्टम भ्रष्टाचार से बुरी तरह ग्रस्त है. अभी देश में खेती योग्य जमीन में से 80 प्रतिशत जमीन में अनाज और सिर्फ बीस प्रतिशत में फल-सब्जी की पैदावार हो रही है.
अनाज की अपेक्षा फल-सब्जी अधिक आय का जरिया है. इसके अन्य फायदे भी हैं. पर नेनुआ का यह हाल देख कर क्या कहा जाये? बिहार से एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने खेती वाली अपनी सारी जमीन में फलदार वृक्ष लगवा दिये हैं. पर उससे उन्हें कुछ साल बाद ही आय आनी शुरू होगी. खेती के अलावा जिनके पास आय के अलग स्रोत हैं, वे वृक्ष लगा कर आय की कुछ साल तक प्रतीक्षा कर सकते हैं. पर लघु किसान क्या करेगा? उन्हें तो खुद खाने के लिए भी अनाज चाहिए. यह अच्छी बात है कि बिहार के किसान मध्य प्रदेश जैसा आंदोलन नहीं कर रहे हैं. पर
यहां के किसानों में भी खेती से निराशा और असंतोष बढ़ रहे हैं. गत लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के अलावा 50 प्रतिशत मूल्य देने का किसानों से वादा किया था.
पर यह काम नहीं हो सका है. हालांकि मोदी सरकार ने विज्ञापनों के जरिये यह दावा किया है कि पिछले तीन साल में कृषि क्षेत्र में विकास हुआ है. बिहार सरकार ने तो कुछ साल पहले कृषि कैबिनेट भी बनाया था. कोई भी कल्याणकारी शासन अपने यहां के अन्नदाताओं का विशेष ध्यान रखता है. अमेरिकी सरकार हर साल अपने किसानों को 20 अरब डॉलर की सब्सिडी देती है. कई अन्य देश भी ऐसा ही करते हैं. अमेरिका में मात्र 2 प्रतिशत आबादी ही प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है. भारत में यह प्रतिशत करीब 70 है. इतनी बड़ी आबादी की ऐसी उपेक्षा? आजादी के बाद से ही यह उपेक्षा जारी है.
यदि इस बीच सरकारों ने किसानों की आय नहीं बढ़ाई तो 3 रुपये किलो नेनुआ बेचने को अभिशप्त किसान कब तक शांत रहेंगे? फिलहाल एक रास्ता समझ में आ रहा है. बिहार भर में बिना देर किये एग्रो इंडस्ट्रीज के जाल बिछाया जाना चाहिए. बिजली और सड़कों की स्थिति राज्य में पहले से अब बेहतर है. बिहार सरकार की नयी औद्योगिक नीति, 2016 ने भी उद्यमियों के लिए राह आसान की है. पर अब भी एक समस्या है. माफियाओं और छोटे-बड़े रंगदारों से उद्यमियों को कड़ी सुरक्षा प्रदान करने का पक्का प्रबंध शासन को करना होगा. अपराध के आंकड़ें जो कहें, पर अधिकतर उद्यमियों में यह धारणा यह है कि वे यहां सुरक्षित नहीं हैं. आज भी अपराध करने वाले गिरफ्तारी से बच नहीं पा रहे हैं. पर अपराध हो भी रहे हैं. राजनीतिक संरक्षण प्राप्त अपराधियों का हाल के महीनों में हौसला बढ़ा है. इस बीच स्वामी रामदेव ने यह घोषणा की है कि बिहार में वे दो-तीन उद्योग लगाएंगे. बिहार के लिए यह शुभ संकेत है. स्वामी रामदेव ने यदि सचमुच ऐसा कर दिया तो किसानों की आय बढ़ाने में उससे मदद मिलेगी.
आंदोलन भी हुआ था दीघा-पहलेजा पुल के लिए : दीघा-पहलेजा सड़क पुल का शुभारंभ 11 जून को होगा. यह एक बड़ी आबादी के लिए मिनी क्रांति की तरह ही है. अनेक लोगों को नाव की सवारी और गांधी सेतु पर भीषण सड़क जाम से मुक्ति मिलेगी. पर इस अवसर पर छात्र अभिषेक राय की याद आती है.
इस पुल के निर्माण की मांग के समर्थन में हुए रेल रोको आंदोलन के दौरान 19 जुलाई, 1996 को 22 वर्षीय छात्र अभिषेक पुलिस की गोली का शिकार हो गया था. कई लोग घायल हुए थे. सारण प्रमंडल विकास संघर्ष समिति के संयोजक प्रो रामानुज प्रसाद सहित चार आंदोलनकारी गिरफ्तार कर लिये गये थे. याद रहे कि प्रस्तावित पुल के स्थल को लेकर राम विलास पासवान और लालू प्रसाद में मतभेद था. पासवान पुल को गांधी सेतु से पूरब ले जाना चाहते थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद 21 जुलाई, 1996 को सोनपुर के पास स्थित मानपुर गांव जाकर अभिषेक के परिजन को सांत्वना दी थी. साथ ही उन्होंने कहा था कि बिहार विधानसभा के सभी दलों ने सर्वसम्मत से दीघा-पहलेजा स्थल पर मुहर अपनी लगाई है. पुल तो वहीं बनेगा.
दीघा-पहलेजा पुल का नामकरण : गांधी सेतु के नामकरण पर भी पहले विवाद हुआ था. पटना के निकट गंगा नदी पर प्रस्तावित पहले पुल का शिलान्यास 19 जून, 1970 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था. वह दिन प्रधानमंत्री के लिए दूसरे कारण से भी शुभ रहा. संयोग से शिलान्यास स्थल पर ही पोते के जन्म की सूचना उन्हें मिली थी. खैर पुल के पहले चरण का निर्माण कार्य 1982 में पूरा हुआ. उस बीच बिहार में कई सरकारें आईं और गयीं.
कांग्रेसी सरकार ने यह कहा था कि पूर्व केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र के नाम पर इस पुल का नाम रखा जायेगा. पर 1977 में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में जनता सरकार बन गयी. उस सरकार ने जयप्रकाश नारायण का नाम आगे किया. पर पुल का निर्माण पूरा होने से पहले ही जनता सरकार अपदस्थ हो गयीं. 1980 में डॉ जगन्नाथ मिश्र के नेतृत्व में कांग्रेसी सरकार बन गयी. उसने उस पुल का नाम गांधी सेतु रख दिया. स्वाभाविक ही था कि जेपी का नाम गांधी जी के नाम को आगे लाकर ही हटाया जा सकता था. जब गांधी का नाम आ गया तो कहीं कोई विरोध नहीं हुआ. होना भी नहीं था. दरअसल तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने सोचा होगा कि जेपी का नाम काटने का यही एक तरीका है. अब यदि भाजपा विधायक संजीव चौरसिया दीघा-पहलेजा पुल का नाम जेपी के नाम पर रखवाना चाहते हैं तो यह उचित ही लगता है.
विरोध ही विरोध ! : नीतीश सरकार ने अपने कार्यकाल के प्रारंभिक दौर में ही प्राप्तांकों के आधार पर शिक्षकों की बहाली की थी. पर शर्त यह थी कि उन शिक्षकों को बाद में दक्षता परीक्षा देनी होगी.
जब उस परीक्षा का समय आया तो कुछ विरोधी राजनीतिक नेताओं ने उस परीक्षा का विरोध कर दिया. दक्षता परीक्षा के विरोधी नियोजित शिक्षकों में पटना में रोषपूर्ण प्रदर्शन किया. पर सरकार ने परीक्षाएं लीं. उन्हीं नेताओं में से कुछ ने बाद में आरोप लगाया कि राज्य सरकार ने अयोग्य शिक्षक बहाल कर दिये. अब उन्हीं नेताओं में से कुछ नेतागण शिक्षा-परीक्षा की दुर्दशा के लिए राज्य सरकार को कोस रहे हैं. ठीक है. खूब कोसिये. पर बिहार में शिक्षा-परीक्षा की ऐसी दुर्दशा एक दो चार साल की देन तो है नहीं. दशकों पुरानी है. सैकड़ों शिक्षा-परीक्षा माफिया दशकों से सक्रिय हैं. आज इंटर परीक्षा के रिजल्ट पर रोना रोने वाले कितने नेताओं ने उन माफियाओं के खिलाफ पहले कभी धरना-प्रदर्शन किया? किया था तो कब?
और अंत में : पूर्व केंद्रीय कोयला सचिव एचसी गुप्त को जब कोलगेट घोटाले में अदालत ने सजा दी तो बड़े-बड़े नौकरशाहों ने विभिन्न अखबारों में लेख लिखे. लिखा कि गुप्त बड़े ईमानदार अफसर रहे हैं. पर ऐसे थोथे तर्क का जवाब पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम ने दिया. उन्होंने लिखा कि सिर्फ ईमानदार होना ही पर्याप्त नहीं है. अफसरों को चाहिए कि वे जनता के हितों की रक्षा भी करें.