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सजायाफ्ता कर्मचारी मंजूर नहीं तो नेताओं को क्यों मिले छूट
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक सदेश की सरकार किसी सजायाफ्ता को चपरासी तक की नौकरी नहीं देती. पर सजायाफ्ता नेता, प्रधानमंत्री के पद तक भी पहुंच सकता है. इस तरह की विसंगतियों को दूर करने की उम्मीद नरेंद्र मोदी सरकार से कुछ लोग कर रहे थे. पर उन्हें अब निराशा हो रही है. जब सजायाफ्ता नेताओं […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
सदेश की सरकार किसी सजायाफ्ता को चपरासी तक की नौकरी नहीं देती. पर सजायाफ्ता नेता, प्रधानमंत्री के पद तक भी पहुंच सकता है. इस तरह की विसंगतियों को दूर करने की उम्मीद नरेंद्र मोदी सरकार से कुछ लोग कर रहे थे. पर उन्हें अब निराशा हो रही है.
जब सजायाफ्ता नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन रोक की मांग को लेकर जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी तो केंद्र सरकार ने उस पर अपनी मंशा जाहिर कर दी. केंद्र सरकार के वकील ने कहा कि यह मामला सुनवाई के लायक ही नहीं. याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने यह ठीक ही सवाल उठाया है कि ऐसे में जब सरकारी कर्मचारियों और न्यायिक पदाधिकारियों पर आजीवन पाबंदी लग जाती है तो जन प्रतिनिधियों पर क्यों नहीं लगे? उन्होंने राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण और भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि में यह याचिका दायर की है. इस याचिका पर 19 जुलाई को सुनवाई होगी. गत बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को फटकारा. आयोग इस मुद्दे पर कोर्ट को यह नहीं बता रहा है कि वह आजीवन प्रतिबंध के पक्ष में है या नहीं. संभवतः आयोग इस मामले में केंद्र सरकार के रुख के अनुसार ही काम कर रहा है.
राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टीकरण से ऊबे इस देश के अनेक लोग सुप्रीम कोर्ट से ही यह उम्मीद कर रहे हैं कि वह इस मामले में सरकार को सख्त निर्देश दे. अन्यथा कुछ दिनों के बाद संविधान की रक्षा करना और भी मुश्किल हो जायेगा. सुप्रीम कोर्ट को ही तो देखना है कि इस देश में संविधान के अनुसार काम चल रहा है या नहीं. यदि राजनीति में भ्रष्ट और अपराधी लोगों की बढ़ती संख्या की रफ्तार को तत्काल नहीं रोका गया तो विधायिकाएं भ्रष्टाचार और अपराध के आरोपियों से पूरी तरह भर जाएंगीं. अभी उनकी संख्या सदन की कुल संख्या की एक तिहाई है.
याद रहे कि किसी सांसद या विधायक को कम से कम दो साल की सजा मिलने के तत्काल बाद उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है. पर सजा पूरी हो जाने के छह साल बाद वह फिर से चुनाव लड़ सकता है.
यूं हुई अच्छे कार्यकर्ताओं की कमी : जब तक इस देश में संयुक्त परिवारों का दौर चलता रहा, अच्छी मंशा वाले राजनीतिक कार्यकर्ता विभिन्न राजनीतिक दलों को मिलते रहे. पर अब तो लघु परिवारों का जमाना है. अब भी जहां-तहां संयुक्त परिवार मौजूद हैं, पर उनकी संख्या कम होती जा रही है.
पहले संयुक्त परिवार से निकले राजनीतिक कार्यकर्ता के पत्नी और बाल बच्चों की देखरेख संयुक्त परिवार कर देता था. यानी सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ता बनने की इच्छा रखने वालों के लिए नौकरी करने की मजबूरी नहीं थी. पर आज तो सबको अपने-अपने लघु परिवार का पालन-पोषण खुद ही करना है. इसलिए कोई व्यक्ति राजनीतिक कर्म में लगता भी है तो वह निजी खर्चें के लिए राजनीति या शासन से ही पैसे निकालना चाहता है.
हालांकि सारे राजनीतिक कार्यकर्ता ऐसे नहीं हैं. कुछ कार्यकर्ता अब भी निःस्वार्थ भाव से राजनीति में लगे हुए हैं. पर अनेक कार्यकर्ताओं को या तो कोई ठेकेदारी चाहिए या दलाली का धंधा. अपराध के धंधे में भी काफी पैसे हैं. राजनीति के पतन का यह बड़ा कारण है. पता नहीं इस स्थिति से देश की राजनीति को कौन बचाएगा? मौजूदा राजनीति न तो भ्रष्टाचार और न ही अपराध पर निर्णायक हमले की स्थिति में है. राजनीति की इन दो विपदाओं को जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक की ताकत भी बढ़ाती जा रही है.
संकट में दोस्तों की पहचान : 1967 में विदेश मंत्री एमसी छागला ने लोकसभा में कहा था कि भारत-चीन सीमा विवाद पर सोवियत संघ अब भारत के पक्ष को समझ गया है और वह हमें ही सही मानता है. पर 1962 में चीन ने जब भारत पर हमला किया तो सोवियत संघ ने हमें मदद करने से साफ मना कर दिया था. तब वह हमारे देश का पक्ष समझने को भी तैयार नहीं था.
उसने कहा था कि चीन हमारा भाई है और भारत हमारा दोस्त. यानी दोस्त के लिए कोई भाई से झगड़ा नहीं करता. हां, तब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने न चाहते हुए भी अमेरिका से मदद मांगी. चीन सीमा से इस आशंका से पीछे हट गया था कि कहीं अमेरिका हस्तक्षेप न कर दे. उससे पहले भारत अमेरिका से दोस्ताना संबंध नहीं रखना चाहता था. दूसरी ओर वह सोवियत संघ से घनिष्ठ संबंध के पक्ष में रहा.
आज भी जब हमारे देश पर युद्ध का खतरा मंडरा रहा है, तो हमें विभिन्न देशों से दोस्ती के सिलसिले में अपने हितों को ध्यान में रखना चाहिए न कि किन्हीं अन्य बातों कोे. दुनिया के अन्य सभी देश भी अपने राष्ट्रीय हितों का ही ध्यान रखते हैं. पर हमारे ही देश में ऐसी राजनीतिक शक्तियां भी हैं जो परमाणु परीक्षण करने पर चीन की तो तारीफ करती हैं, पर वही काम जब भारत सरकार करती है तो वह उसका विरोध करती है.
कांग्रेसी वकील क्यों नहीं दिखाते करामात
टूजी स्पैक्ट्रम आवंटन घोटाले में जीरो लॉस का सिद्धांत पेश करने वाले मशहर वकील कपिल सिब्बल ने अब एक नयी थ्योरी पेश की है. स्पैक्ट्रम की नीलामी शुरू होते ही सिब्बल की जीरो लॉस थ्योरी तो फेल हो गयी. अब देखना है कि उनकी नयी थ्योरी पास होती है या फेल! सिब्बल का आरोप है कि भाजपा के सत्ताधारी नेताओं के यहां आयकर और इडी के छापे क्यों नहीं पड़ रहे हैं? क्या वे सब के सब स्वच्छ हैं? सिर्फ गैर राजग दलों के नेता ही दागी हैं?
कपिल साहब के सवाल में दम है. यदि जनहित याचिकाओं के मामलों में कपिल सिब्बल, डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी और प्रशांत भूषण की राह अपना लें तो उन्हें इसका रोना नहीं रोना पड़ेगा कि केंद्र सरकार एकतरफा कार्रवाई कर रही है. डॉ स्वामी और प्रशांत भूषण ने मनमोहन सिंह के शासन काल में सिर्फ कपिल सिब्बल की तरह रोना तो नहीं रोया था. उन्होंने जनहित याचिकाओं के जरिये जांच एजेंसियों को ऐसी हस्तियों के खिलाफ भी कार्रवाई करने को मजबूर कर दिया था जिन्हें मनमोहन सरकार बचा रही थी.
यदि सिब्बल के पास भाजपा नेताओं के खिलाफ वैसे ही ठोस सबूत हैं तो वह जनहित याचिकाओं का सहारा क्यों नहीं ले रहे हैं? सिब्बल तो बड़े काबिल वकील हैं. क्या उनके लिए जनहित याचिकाओं का रास्ता बंद है? या फिर उनके पास कोई सबूत ही नहीं है? क्या सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए बयान देना इतने बड़े वकील को शोभा देता है?
अपनी सरकार में शामिल लुटेरों के खिलाफ मनमोहन सिंह सरकार जब कार्रवाई नहीं कर सकी जिस सरकार के खुद सिब्बल भी मंत्री थे तो वह मोदी सरकार से ऐसी उम्मीद क्यों कर रहे हैं? आम धारणा यह है कि लगभग सभी दलों में चोर और लुटेरे घुसे हुए हैं. हालांकि उन्हीं के बीच ईमानदार नेता भी हैं. सत्ताधारी दल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई करेगी ही. पर राजग विरोधी दलों को भी चाहिए कि वे भी अपने बीच से डॉ स्वामी और प्रशांत भूषण तैयार करें ताकि दोनों पक्षों के लुटेरों को उनके सही स्थान पर पहुंचाया जा सके.
और अंत में: एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने गुरुवार को मीडिया से कहा कि सीबीआइ जितने मामलों की जांच करती है, उनमें से सिर्फ 30 प्रतिशत मामलों में ही वह आरोपितों को अदालतों से सजा दिलवा पाती है. पर सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार ने गत अप्रैल में लोकसभा में बताया कि वह दर 66.8 प्रतिशत है. प्रवक्ता यह कहना चाहते थे कि बहुधा सीबीआइ झूठे केस तैयार करती है जो अदालतों में नहीं टिकते. सीबीआइ की आलोचना से पहले अपने आंकड़े तो ठीक कर लीजिए प्रवक्ता जी!
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