नीतीश कुमार पर अब क्या कहते-लिखते हैं प्रमुख पत्रकार?

पटना : बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चर्चा में हैं. अकल्पनीय ढंग से उन्होंनेतेजस्वी यादव के ऊपर दर्ज सीबीआइ एफआइआर मुद्दे पर खुद के नेतृत्व वाली महागंठबंधन की सरकार भंग कर 16 घंटे में एनडीए की सरकार गठित कर ली. भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं. नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 29, 2017 4:15 PM

पटना : बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चर्चा में हैं. अकल्पनीय ढंग से उन्होंनेतेजस्वी यादव के ऊपर दर्ज सीबीआइ एफआइआर मुद्दे पर खुद के नेतृत्व वाली महागंठबंधन की सरकार भंग कर 16 घंटे में एनडीए की सरकार गठित कर ली. भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं. नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किये जाने के मुद्दे पर नीतीश ने 2013 में भाजपा से अपना 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया था और दो दिन पहले चार साल पहले टूटा रिश्ता मोदी के ही नेतृत्व वाले एनडीए से जोड़ लिया. कह सकते हैं कि यह भारतीय राजनीति में अबतक साल 2017 की सबसे बड़ी घटना है. इस पर मीडिया काफी कुछ लिख रहा है, कह रहा है. बड़े पत्रकार भी इसे अपने-अपने ढंग से देख रहे हैं और इसे परिभाषित कर रहे हैं, इसकी व्याख्या कर रहे हैं. हम यहां कुछ प्रमुख पत्रकारों के नजरिये को इस मुद्दे पर जानते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार व फर्स्टपोस्ट न्यूज वेबसाइट के संपादक अजय कुमार सिंह लिखते हैं – लालू से रिश्ता तोड़ कर नीतीश ने बेवकूफी वाले सियासी प्रयोग का अंत कर दिया है. वे लिखते हैं – छठी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार अपनी बात साफगोई से कहने के लिए नहीं जाने जाते हैं. जबकि, आज नीतीश जिनके दिखाए रास्ते पर चल रहे हैं, वोपूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह अपनी बात खुल कर कहने के लिए जाने जाते थे.

भारतीय राजनीति की गहरी समझ वाले अजय कुमार सिंह आगे लिखते हैं – वीपी ने राजीव गांधी से बगावत कर जनमोर्चा बनाया था, फिर जनता दल बना और वे प्रधानमंत्री बने, लेकिन अपनी लोकप्रियता के शिखर पर रहते हुए भी वीपी सिंह ने इसे बेवकूफाना प्रयोग कहा था…नीतीश कुमार ने जब 26 जुलाई को लालू यादव के साथ महागंठबंधन तोड़ा, तो ये यकीनन वो इसे अपने बेवकूफाना सियासी दौर के खात्मे के तौर पर देखते होंगे.

वरिष्ठ पत्रकार टीसीएस श्रीनिवास राघवन क्विंट हिंदी में लिखते हैं – नीतीश कुमार के बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के तीन मतलब निकाले जा सकते हैं. पहला, वह धुरंधर राजनेता हैं. दूसरा, उनमें राजनीतिक नैतिकता जरा सी भी नहीं है और तीसरा, ये दोनों ही चीजें उनमें हैं…वह धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं. इसके बावजूद वह बीजेपी से इस बीच दो बार जुड़े हैं, जो हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना चाहती है. उनके अनुसार, नीतीश के कारण बिहार में गैर भाजपा दलों का महागंठबंधन टूट गया.

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वहीं, वायर हिंदी पर सीएसडीएस के प्रोफेसर अभय कुमार दुबे लिखते हैं कुमार ने भाजपा से हाथ मिला कर अपने लिए गड्ढा खोद लिया है.उनकेअनुसार, नीतीश ने विपक्ष का राष्ट्रीय नेता होने के कठिन रास्ते पर चलने के बजाय मौकापरस्त ढंग से मुख्यमंत्री बनना चुना. अभय कुमार दुबे आगे लिखते हैं – आजाद भारता के राजनीतिक इतिहास में ऐसा पहली बार देखा गया है कि केंद्रीय सरकार की जांच एजेंसियों को इतने प्रभावी ढंग से भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इससे पहले भी इन एजेंसियों का राजनीतिक मकसदों से प्रयोग हुआ है, पर इस बार तो इनके जरिये एक बड़े उत्तर भारतीय राज्य के राजनीतिक समीकरणों को ही पूरी तरह से बदल डाला गया.

भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक दैनिक भास्कर अखबार में लिखते हैं – नीतीश-लालू के गंठबंधन के दौरान 20 महीने में प्रशासक के तौर पर उनकी छवि कुछ न कुछ ढीली ही हुई है. क्योंकि, नीतीश ने लालू के दो बेटों को मंत्री बना कर अपने पैर में बेड़ियां डाल ली थी. वे आगे लिखते हैं कि नीतीश दोबारा मुख्यमंत्री बनने की कवायद के बजाय यदि विधानसभा भंग करवा कर विधानसभा चुनाव लड़ते तो आश्चर्य नहीं कि वे प्रचंड बहुमत से जीतते और बिना किसी गंठबंधन के वैसे ही सरकार बनाते जैसे यूपी में भाजपा ने बनायी. अगर ऐसा होता वे बिहार के शक्तिशाली मुख्यमंत्री बनते और उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देखा जाने लगता. वे सभी विरोधी दलों की आंखों का तारा बन जाते…नीतीश ने भाजपा से गंठबंधन करके अपने आपको बंधन में बांध लिया है.

बीबीसी हिंदीडॉट कॉम पर शकील अख्तर लिखते हैं – बिहार की राजनीति ने जिस तरह करवट ली है, इस तरह बहुत कम देखने को मिलता है. नीतीश को यह अहसास होने लगा था कि इस गंठबंधन में उनकी मुश्किलें बढ़ रही हैं. वे लिखते हैं कि केंद्र में दोबारा सत्ता में आने के लिए नरेंद्र मोदी को उत्तरप्रदेश व बिहार में बढ़िया प्रतिनिधित्व करना होगा. कई बार अपना सियासी पाला बदलने से नीतीश कुमार का राजनीतिक कद कम हुआ है और विश्वसनीयता घटी है.

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