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सिस्टम के दीमक ने कर दिया आदर्श ग्राम योजना को विफल

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक कुछ अपवादों को छोड़ दें तो महत्वाकांक्षी सांसद आदर्श ग्राम योजना अंततः कुल मिलाकर विफल हो गयी. ऐसा इस बात के बावजूद हुआ कि इस देश में करीब-करीब हर राज्य में केंद्र और राज्य सरकार की करीब सवा दो सौ विकास और कल्याण की योजनाएं चलती हैं. केंद्र सरकार ने फैसला […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो महत्वाकांक्षी सांसद आदर्श ग्राम योजना अंततः कुल मिलाकर विफल हो गयी. ऐसा इस बात के बावजूद हुआ कि इस देश में करीब-करीब हर राज्य में केंद्र और राज्य सरकार की करीब सवा दो सौ विकास और कल्याण की योजनाएं चलती हैं. केंद्र सरकार ने फैसला किया था कि इन्हीं योजनाओं के पैसों से गांवों को आदर्श बनाया जायेगा. पर, ये पैसे इस काम में नहीं लगे. ये पैसे वैसे भी कहां लगते हैं, इसका पता कम ही लोगों को होगा! 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से सरकार जो सौ पैसे भेजती है, उनमें से सिर्फ 15 पैसे ही गांवों तक पहुंच पाते हैं.
85 पैसे बिचौलिए हड़प लेतेे हैं. मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी सांसद आदर्श ग्राम योजना की विफलता के बाद ऐसा लगता है कि 1985 से आज तक इस ह्य हड़प घोटाले ह्ण में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. अक्तूबर, 2014 में इस योजना की शुरुआत करते हुए मोदी जी ने बड़े उत्साह और उम्मीद के साथ कहा था कि अगले तीन साल में देश के 2200 गांवों को आदर्श गांव बना दिया जायेगा.
पर, यह कहे जाने पर कि इस योजना के लिए अलग से पैसे का आवंटन नहीं किया जायेगा, कुछ बिचौलियों और नेताओं का उत्साह उसी समय ठंडा पड़ गया था. तभी से यह भविष्यवाणी की जाने लगी थी कि यह योजना अंततः सफल नहीं होगी. तय हुआ था कि राज्य और केंद्र सरकारों की ओर से पहले से जो योजनाएं चल रही हैं, उन्हीं के पैसों से सांसदों की देखरेख में गांवों को विकसित किया जायेगा.
पर, सवाल है कि पहले से जारी कितनी योजनाओं के मद के कितने पैसे सरजमीन पर लग रहे हैं और उसमें से कितने बिचौलिए खा जा रहे हैं? एक जानकार व्यक्ति ने बताया कि केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से गांवों के विकास के लिए कुल 233 विकास और कल्याण योजनाएं इन दिनों चल रही हैं. 233 के इस आंकड़े पर मुझे थोड़ा संदेह हो रहा है. किसी अन्य जानकार व्यक्ति को कोई अन्य आंकड़ा मालूम हो तो बताएं. यह आंकड़ा चौंकाने वाला है.
क्या किसी ग्रामीण को यह पता है कि उसके भले के लिए सरकारें 233 योजनाएं चलाती हैं? यदि इतनी योजनाओं के पैसे गांवों में लग रहे होते तो इस देश की हालत बहुत पहले ही बदल चुकी होती. कुछ थोड़ी सी योजनाओं का पता तो गांवों से संपर्क रखने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को भी है. पर, 233 योजनाओं की बात सुन कर अचंभा होता है.
पर कुछ लोगों को 15 पैसे ही पहुंचने की बात सुन कर भी तो 1985 में अचंभा हुआ था! आदर्श ग्राम योजना की बात थोड़ी देर के लिए भूल जाएं. अभी 233 योजनाओं पर हो रहे खर्चे की बात करें. मान लीजिए कि 233 नहीं सिर्फ सौ योजनाएं हैं. जितनी भी योजनाएं हैं, क्यों नहीं सरकारेंं इन योजनाओं के नाम और आवंटन की राशि का बुकलेट बना कर हर साल गावों में बंटवाती हैं?
एक दो योजनाओं में कटौती करके बुकलेट की छपाई का खर्च निकाला जा सकता है. दूर-देहात के लोग जब जानेंगे कि गत साल इतने अधिक पैसे इस मद में हमारे गांव के लिए सरकार ने भेजे तो वे उस योजना को जमीन पर खोजेंगे. नहीं मिलेगी तो कोई सामाजिक कार्यकर्ता सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल करेगा. जनहित याचिकाएं दायर होंगी.
इससे किसी भी ईमानदार सरकार को बिचौलियोें के खिलाफ कार्रवाई करने में और आसानी हो जायेगी. यदि कार्रवाई होगी तो संबंधित सामाजिक कार्यकर्ताओं का उत्साह भी बढ़ेगा. इसके साथ दो अन्य काम भी होंगे. एक तो आदर्श ग्राम योजना जैसी योजनाएं विफल नहीं होंगी. साथ ही समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत होकर कुछ लोग सक्रिय राजनीति में जा सकते हैं.
इस बीच एक आयोग बनाकर सरकार को इस बात की जांच करानी चाहिए कि 15 बनाम 85 पैसे की आज क्या वास्तविकता है. रपट मिलने के बाद बिचौलियों यानी ह्य दीमकों ह्ण के खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार को सुविधा होगी. अन्यथा दीमक का काम धीरे-धीरे घड़ियाल उठा लेंगे. भागलपुर सृजन घोटाले के पीछे तो दीमक नहीं, बल्कि घड़ियाल नजर आ रहे हैं.
कब पूरी होगी नेऊरा-शेखपुरा रेल लाइन : रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने कहा है कि लंबित रेल परियोजनाएं शीघ्र पूरी होंगी. यह अच्छी खबर है.पर, लगता है कि रेल मंत्री निर्माणाधीन नेऊरा-शेखपुरा रेल लाइन परियोजना को पूरा करने के प्रति सजग नहीं हैं. इस परियोजना की शुरुआत तब हुई थी जब नीतीश कुमार रेल मंत्री थे. पर, केंद्र में सरकार बदलने पर नयी सरकार की प्राथमिकताएं भी बदल गयीं. 2014 में जब सत्ता परिवर्तन हुआ तब भी कोई उम्मीद नजर नहीं आयी. पर अब तो भाजपा भी बिहार सरकार में शामिल है. इस परियोजना की सुध नहीं ली जायेगी? नेऊरा-शेखपुरा रेल लाइन का एक हिस्सा बन चुका है. जो हिस्सा बचा है, उसके निर्माण कार्य के पूरा हो जाने पर इस लाइन की उपयोगिता बढ़ जायेगी. पटना-दीघा रेल लाइन को लेकर भी रेल मंत्रालय का रवैया सहयोगात्मक नहीं है.
ट्रैफिक के बढ़ते दबाव से पटना कराह रहा है. पटना-दीघा रेल लाइन की जमीन के हस्तानांतरण के बाद उस पर एक चौड़ी सड़क बन सकती है. दीघा-पहलेजा रेल सह सड़क मार्ग के चालू हो जाने के बाद ऐसे वैकल्पिक मार्गों की नितांत आवश्यकता है.
अनेक लोगों को इस बात पर आश्चर्य है कि लगातार मांग के बावजूद पटना-दीघा रेल लाइन की जमीन केंद्र सरकार बिहार सरकार को क्यों नहीं दे रही है! लंबे समय तक बंद रहने के बाद कुछ साल पहले तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद ने इस लाइन पर रेलगाड़ी चलवानी शुरू की थी.
यह रेल मार्ग वैसे तो रेलवे के लिए भारी घाटे का सौदा है, पर रेलगाड़ी के चलते रहने के कारण यह जमीन अतिक्रमण से बच गयी है. लालू ने रेल गाड़ी नहीं चलवायी होती तो अतिक्रमणकारी रेल पटरियों को उखाड़ कर अब तक उस पर पक्का मकान बना लेते. हां, रेल पटरियों के अगल-बगल तो अतिक्रमण हो ही चुका है जिसे एक दिन खाली कराना प्रशासन के लिए अत्यंत कठिन काम होगा. जमीन के हस्तांतरण में जितनी देर होगी, मौजूदा अतिक्रमण हटाना उतना ही कठिन होता जायेगा.
और अंत में : केंद्र सरकार पिछड़ा वर्ग के उद्यमियों के लिए कम सूद पर कर्ज मुहैया कराने के प्रस्ताव पर काम कर रही है. सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय ने इस संबंध में वित्त मंत्रालय को प्रस्ताव भेजा है.
बिहार में पिछड़ों के लिए जो आरक्षण है, उसमें कोटा के भीतर कोटे का प्रावधान है. पिछड़ों और अति पिछड़ों के लिए अलग-अलग आरक्षण कोटे का प्रावधान है. केंद्र सरकार अब इसी लाइन पर काम कर रही है. केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण है.
केंद्र सरकार आरक्षण के इस कोटे के भीतर कोटे का प्रावधान करने पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रही है. हालांकि अभी इस सवाल पर सरकार में आम सहमति नहीं बन पा रही है, इसलिए इस पर निर्णय करने में केंद्र सरकार देर कर रही है. वैसे पिछड़ा वर्ग आयोग ने करीब साढ़े तीन साल पहले ही आरक्षण की 27 प्रतिशत सीटों को तीन हिस्सों में बांट देने की सिफारिश केंद्र सरकार से की थी.
कमजोर पिछड़ी जातियों के कुछ प्रतिनिधि कोटा के भीतर कोटे की मांग पहले से करते रहे हैं. विभिन्न सर्वेक्षण संगठनों द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार देश में पिछड़ों की आबादी 41 से 52 प्रतिशत तक है. इनमें अति पिछड़ों की संख्या ही अधिक है. स्वाभाविक है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए भाजपा का ध्यान इतनी बड़ी आबादी के समूह की ओर जाये.

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