अजय कुमार
पटना : सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर बिहार में लालू प्रसाद एक फैक्टर के तौर पर कायम हैं. रविवार को ऐतिहासिक गांधी मैदान में भाजपा भगाओ के राजनीतिक नारे पर बुलायी गयी राजद की रैली का मतलब यही है.
2005 के बाद क्रमिक रूप से लालू प्रसाद की सामाजिक ताकत घटती जा रही थी और 2010 में आकर उनके विधायकों की तादाद केवल 22 रह गयी थी.
तब यह माना जा रहा था कि लालू आहिस्ता-आहिस्ता राजनीति से अप्रासंगिक होते जायेंगे. इसकी बड़ी वजह माई (मुसलिम-यादव) समीकरण का लगातार कमजोर होता जाना था. उनके प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार इस समीकरण को अपने पक्ष में मोड़ने के साथ अति पिछड़ी जातियों के बड़े समूह की राजनीतिक चेतना को समावेषी विकास का अवलंबन बना रहे थे. नतीजे के तौर पर 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को ऐतिहासिक जीत हासिल हुई थी. उसके बाद बिहार की राजनीति ने कई उलट-फेर देखे.
लालू प्रसाद की आज की रैली तब हो रही थी जब हालात उनके प्रतिकूल थे. चारा घोटाले की सुनवायी में रांची-पटना की दौड़ थी. वह अपनी पिछली रैलियों की तरह तैयारी के लिए लोगों के बीच नहीं पहुंच सके. परिवार के दूसरे कई सदस्यों पर करप्शन के आरोप लगे. ऐसी स्थिति में छवियों की लड़ाई में लालू काफी पीछे थे. परिवारवाद के खिलाफ जिस समाजवादी पाठशाला में लालू प्रसाद की शिक्षा-दीक्षा हुई, वही आज इस बीमारी के प्रतीक बन गये हैं. विपक्ष इन सवालों पर उन्हें काफी तीखे तरीके से घेरता रहा है. लालू प्रसाद की ओर से बुलायी गयी जिन रैलियों का जिक्र बार-बार होता है, वे तब हुई थीं जब वह या उनकी पार्टी की सरकार में थी. गरीब चेतना रैली या लाठी में तेल पिलावन रैली इसके उदाहरण हैं. आधा बिहार बाढ़ में घिरा हुआ था. ये तमाम तरह की प्रतिकूलताएं थीं.रैली में आयी भीड़ को अगर पैमाना माना जाये, तो बेशक लालू प्रसाद इससे खुश होंगे.
उन्हें इससे नयी ऊर्जा मिलेगी. इसका अर्थ यह भी है कि राज्य की राजनीति के केंद्र से लालू धीरे-धीरे परिधि की ओर सरक रहे थे, अब वह उसके केंद्र की ओर कूच करने का हौसला पायेंगे. लेकिन यह शायद इतना सरल भी नहीं होगा. राजनीति का मन-मिजाज इन दो दशकों में काफी बदल गया है. हालांकि रैली में आयी भीड़ से यह भी पता चलता है कि लालू प्रसाद का पुराना सामाजिक समीकरण दोबारा खड़ा हो रहा है.
अगर इसके लक्षण दिख रहे हैं, तो इसकी जड़ें सामाजिक जीवन व राजनीतिक गुत्थियों में तलाशने की जरूरत है. रैली ने तेजस्वी यादव को स्थापित कर दिया. यह भी लालू प्रसाद के हक में है. वह प्रतिपक्ष का चेहरा होंगे.
लालू खुश होंगे कि उनके मंच पर विपक्षी दलों के प्रतिनिधि चेहरों ने अपनी मौजूदगी दर्ज करायी. यह उनके लिए राहत भरी बात होगी. लालू को लेकर कांग्रेस दुविधा में रही है. कभी हां-कभी ना वाली स्थिति में. कांग्रेस का नेतृत्व भी मान रहा है कि बिहार में अब राजद के साथ गये बगैर बात नहीं बनेगी. लालू के साथ खड़ा होने पर कुछ और दलों की उलझनें सामने आती रही हैं. यह दुविधा भ्रष्टाचार को लेकर रही है. परिवारवाद का भी मामला है. पर लालू के साथ खड़ी लोगों की भीड़ देखकर उनका रुख बदलता रहा है. यही लालू को प्रासंगिक बना देता है.
झारखंड की राजनीति की दो धाराएं लालू के मंच पर एक साथ दिखीं. पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी और हेमंत सोरेन की मौजूदगी के पीछे दोनों से लालू का लगातार संवाद रहा.
राजनीति में शुचिता की हिमायत करने वाले लोगों के लिए भी यह हैरानी का विषय हो सकता है कि भ्रष्टाचार और परिवारवाद के प्रतीक बने लालू की रैली में इतनी भीड़ क्यों जुट गयी? इसका यह भी मतलब निकल सकता है कि एक बड़े सामाजिक हिस्से को ऐसे आरोप विचलित अथवा चिंतित नहीं करते. उसे सब एक जैसे नजर आते हैं. उसकी अपनी-अपनी सामाजिक-जातीय पहचान व प्रतिबद्धताएं अलग-अलग झंडे के साथ बंधी रहती है.