आशुतोष कुमार पांडेय @ पटना
पटना : भारतीय राजनीति में बिहार के सियासी गणित को समझना या अनुमान लगाना हमेशा से राजनेताओं के लिए एक कठिन कार्य रहा है. बिहार को राजनीतिक प्रयोग की भूमि भी माना जाता है. कहा यह भी जाता है कि बिहार का एक आम आदमी राजनीतिकविषयों को लेकर तुलनात्मक रूप से अधिक संवेदनशील होता है. यहां की राजनीति जातीय समीकरण पर अधिक टिकी है और बहुमतकाखेल इससे बहुत हद तक तय होता है. किसी भी राष्ट्रीय पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश का दौरा वहां की सियासत की स्थिति को समझने के साथ, संगठन के स्वास्थ्य का जायजा लेने के लिए करता है, जिसके अनुरूप वह आगे की रणनीति तय कर सके. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश-लालू के मजबूत सामाजिक-जातीय समीकरण के सामने अमित शाह की रणनीति विफल रही थी. भाजपा के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह के लिए यह एक चुनौती थी. हालांकि, अब बिहार की सियासत बदल गयी है. नीतीश नरेंद्र मोदी एवं अमित शाह की अगुवाई वाले एनडीए के एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. वहीं, भाजपा अब बिहार की सत्ता में है. इससे पार्टी एवं कार्यकर्ताओं में नयी जान आयी है. नीतीश जैसा चेहरा भी उनके गंठबंधन के पास है. ऐसे में जब अमित शाह अक्तूबर के अंतिम दिनों एव नवंबर के शुरुआती दिनों में बिहार के दौरे पर आयेंगे, तो वे बिहार भाजपा को नये सिरे से कसेंगे-सवारेंगे. इसकेलिए उन्होंने शुरुआती जायजा भी लिया है.
कोर कमेटी की बैठक
इसी क्रम में गुरुवार को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी की बिहार इकाई के कोर ग्रुप के नेताओं के साथ बैठक की. यह भाजपा के जदयू के साथ गठजोड़ कर नीतीश कुमार सरकार में शामिल होने के बाद इस तरह की पहली बैठक थी. सूत्रों ने बताया कि शाह ने प्रदेश के नेताओं से यह सुनिश्चित करने को कहा कि सरकारी योजनाएं अपने लक्षित लाभार्थियों तक पहुंचें. समझा जाता है कि उन्होंने उनसे कहा कि राज्य सरकार में भाजपा के मंत्री पटना में पार्टी मुख्यालय में सोमवार और मंगलवार को आम लोगों से मिलें. बैठक के बाद शाह ने मीडिया से बातचीत में कहा कि यह बैठक पार्टी संगठन और सरकार से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित रही. हमने राज्य में पार्टी को और मजबूत करने की आवश्यकता पर भी बल दिया. बैठक में, उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नित्यानंद राय, पूर्व भाजपा प्रमुख मंगल पांडे, नंद किशोर यादव, राज्य से केंद्रीय मंत्री राधा मोहन सिंह, गिरिराज सिंह, अश्विनी चौबे आदि ने बैठक में हिस्सा लिया.
बिहार के जातीय समीकरण पर निगाह
राजनीतिक हलकों में यह चर्चा है कि भाजपा की यह बैठक जदयू के भविष्य की उस मांग के मद्देनजर भी महत्वपूर्ण है, जिसमें एनडीए में शामिल जदयू लोकसभा चुनाव में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने की पेशकश कर सकती है. अंदर की खबरों की मानें, तो भाजपा का एक विंग अभी से ही राज्यों में सीटों के आंकलन में जुट गया है और वह जब अपनी रिपोर्ट केंद्रीय नेतृत्व को सौपेंगा, उसके बाद ही सीटों के बंटवारे की बात तय होगी. भाजपा बिहार के मामले में 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम को सामने रखकर भी चल सकती है, जिसमें, भाजपा ने 2014 के आम चुनाव में बिहार में 22 सीटें जीती थीं और उसके सहयोगियों ने नौ सीटें. उस चुनाव में जदयू 40 में से महज दो सीटें ही जीत पाया था. अमित शाह बिहार में एक तीर से कई शिकार करने की फिराक में भी हैं. बताया जा रहा है कि बिहार दौरे पर वह जीतन राम मांझी की पार्टी को भाजपा में विलय का ऑफर दोबारा दुहरायेंगे, इसके लिए मांझी के बेटे को बिहार विधान परिषद की सदस्यता दिलायी जा सकती है. चर्चा यह भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कहीं मांझी को राज्यपाल भी बनाया जा सकता है.
भाजपा की रणनीति शुरू
भाजपा की प्रदेश ईकाइ में चर्चा है कि कई ऐसे सांसद और विधायक हैं, जो 2019 लोकसभा चुनाव के पहले पार्टी का दामन थाम सकते हैं. इनमें से वैसे लोग ज्यादा होंगे, जिनका अपने दल के नेतृत्व से मोहभंग हो चुका है. अमित शाह सबसे पहले बिहार में राजद और कांग्रेस के बचे-खुचे जातीय समीकरण को धराशायी करना चाहते हैं. नीतीश कुमार के उनके साथ मिल जाने के बाद यह काम आसान दिखने लगा है. बिहार के सीएम नीतीश कुमार के एनडीए में शामिल होने के बाद भाजपा की यह पहली महत्वपूर्ण रणनीतिक बैठक थी. माना जा रहा है नीतीश के आने से 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बिहार में सीधा फायदा होगा. नीतीश के पाला बदलने से विपक्ष की एकता को भी करारा झटका लगा है. बिहार विधानसभा चुनावों में बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन की जीत एक मॉडल की तरह थी. इस मॉडल को 2019 में राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की योजना थी पर इस मॉडल ने 20 महीने में दम तोड़ दिया. बीजेपी ने साल 2019 का एजेंडा साल 2017 में ही सेट कर दिया गया है.
आसान नहीं होगा सीटों का बंटवारा
साल 2014 लोकसभा चुनावों में एनडीए के खाते में 31 सीटें आयीं. यूपीए के खाते में 6 सीट आयीं, जबकि जदयू ने मात्र दो सीट जीता. यह तब की बात है, जब नीतीश लालू और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. विधानसभा चुनाव में पिछली गलती से सबक लेकर तीनों महागठबंधन में लड़े और 243 में से 178 सीट हासिल की. 2009 के लोकसभा चुनाव में जब नीतीश और बीजेपी साथ मिलकर लड़ रहे थे, तब भी 32 सीट हासिल की थीं. भाजपा की नजर अब 40 की 40 सीटों पर है. फिलहाल, यह तय है कि सीटों का बंटवारा इतना आसान नहीं होगा, जिनता अमित शाह सोच रहे हैं. बंटवारे से पहले सियासी तूफान का ज्वार ऐसा उठेगा, जिससे पार्टी के हिलने की आशंका है, क्योंकि राजनीति में दावेदारी कोई भी दल छोड़ना नहीं चाहता, भले उसे विजय श्री का टीका मिले या ना मिले.
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