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सरकारी स्कूलों में ”अंग्रेजी” मतलब ”मस्ती की पाठशाला”

अनुपम कुमारी लिटरेचर है कठिन, खुद नहीं समझ पाते टीचर तो बच्चे कैसे करेंगे अंग्रेजी की पढ़ाई पटना : ‘बच्चों लेटर की स्पेलिंग बताना.’ एक सरकारी स्कूल की नौवीं क्लास में जब टीचर बच्चों से अंग्रेजी के कॉमन शब्दों की स्पेलिंग पूछते हैं, तो बच्चे बताने में असमर्थ हो जाते हैं. जवाब देने के लिए […]

अनुपम कुमारी
लिटरेचर है कठिन, खुद नहीं समझ पाते टीचर तो बच्चे कैसे करेंगे अंग्रेजी की पढ़ाई
पटना : ‘बच्चों लेटर की स्पेलिंग बताना.’ एक सरकारी स्कूल की नौवीं क्लास में जब टीचर बच्चों से अंग्रेजी के कॉमन शब्दों की स्पेलिंग पूछते हैं, तो बच्चे बताने में असमर्थ हो जाते हैं. जवाब देने के लिए कुछ बच्चों ने अपने हाथ खड़े किये, लेकिन उनमें से कोई भी इसकी सही स्पेलिंग नहीं बता सका. किसी ने स्पेलिंग से ‘इ’, तो किसी ने ‘टी’ गायब कर दिया.
हद तो तब जब किसी ने इसमें ‘ए’ भी जोड़ दिया. ऐसे ढेरों अंग्रेजी के सरल शब्द हैं, जिनकी स्पेलिंग स्टूडेंट्स नहीं जानते. दरअसल सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी की घंटी बोले तो यह मस्ती की पाठशाला है. यहां अंग्रेजी की क्लास में टीचर रिलैक्स हैं, तो बच्चे भी विश्राम की मुद्रा में दिखते हैं. न पढ़ाई का टेंशन, न फेल होने का डर. टीचर भी हैं मस्त. यह स्थिति सभी सरकारी विद्यालयों के अंग्रेजी की क्लास और उनके टीचर की है, जो बस स्कूलों में एक कोरम पूरा कर रहे हैं.
शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि यहां न तो अंग्रेजी के टीचर दक्ष हैं, और न ही बच्चे. पहली से छठी कक्षा तक बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाया ही नहीं जाता है. वहीं, मैट्रिक में अंग्रेजी की परीक्षा ली तो जाती है, पर उसके अंक कुल प्राप्तांक में नहीं जोड़े जाते हैं. परीक्षा देना अनिवार्य तो है, पर फेल हो या पास कोई फर्क नहीं पड़ता.
80% बच्चों को अंग्रेजी का बेसिक नॉलेज नहीं
कई सरकारी स्कूलों के टीचर से बात करने पर पता चला कि नौवीं से 12वीं तक ऐसे स्टूडेंट्स की संख्या लगभग 80 फीसदी है, जिन्हें अंग्रेजी की बुनियादी जानकारी भी नहीं है. वे अंग्रेजी में ठीक से पढ़ भी नहीं पाते हैं. वहीं, सिलेबस में पहला व दूसरा चैप्टर साहित्यिक दृष्टि से इतना कठिन है कि उसे समझना टीचर के लिए ही टेढ़ी खीर है. ऐसे में स्टूडेंट्स के वश की बात तो यह बिलकुल नहीं है.
पहली कक्षा से ही अंग्रेजी अलग
सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा से ही अंग्रेजी की पढ़ाई सही से नहीं होती है. छठी में जाने के बाद बच्चों को ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’ ‘डी’ पढ़ायी जाती है. साथ ही आठवीं कक्षा तक बच्चों को प्रोमोट करने की नीति भी अंग्रेजी की पढ़ाई को कमजोर बनाती है.
इससे स्टूडेंट्स आठवीं तक अंग्रेजी के शब्दों की बस पहचान कर पाते हैं. अचानक जब वह नौवीं में जाते हैं, तो उन्हें भारी-भरकम सिलेबस का सामना करना पड़ता है. स्कूलों में टीचर्स की स्थिति यह है कि नौवीं व 12वीं के स्टूडेंट्स को सिलेबस न पढ़ा कर उन्हें बेसिक जानकारी देनी पड़ रही है. मिलर हाईस्कूल के टीचर मिथिलेश कुमार बताते हैं कि स्टूडेंट्स अंग्रेजी में बहुत कमजोर हैं. नौवीं के स्टूडेंट्स को तीसरी-चौथी कक्षा की अंग्रेजी भी नहीं आती.
नहीं हैं शिक्षक
पटना जिले में 195 सेकेंडरी अौर प्लस टू स्कूल हैं. यहां बच्चों की संख्या के मुताबिक अंग्रेजी के दो से तीन टीचर्स के पद स्वीकृत हैं. पर स्थिति यह है कि सेकेंडरी में 136 और प्लस टू में 108 समेत अंग्रेजी टीचर के 244 पद रिक्त हैं.
अंग्रेजी के प्रति बच्चों की शुरू से रुचि नहीं है. इसका मुख्य कारण बोर्ड में मार्क्स का नहीं जुड़ना है. स्टूडेंट और टीचर दोनों ही इसे नजरअंदाज करते हैं. स्कूलों में टीचर्स को जरूरी ट्रेनिंग दी जा रही है. इससे स्टूडेंट्स की बेसिक जानकारी बढ़ेगी.

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