बिहार : दागियों पर कार्रवाई के लिए जरूरी है गवाहों की सुरक्षा
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख से यह साफ है कि राजनीति के अपराधीकरण के खात्मे के लिए शासन को अब ठोस कदम उठाने ही पड़ेंगे. इस मामले में बिहार और उत्तर प्रदेश सरकारों की भूमिका बढ़ने वाली है. क्योंकि इन राज्यों के शांतिप्रिय लोग दशकों से राजनीति के अपराधीकरण और अपराध […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख से यह साफ है कि राजनीति के अपराधीकरण के खात्मे के लिए शासन को अब ठोस कदम उठाने ही पड़ेंगे. इस मामले में बिहार और उत्तर प्रदेश सरकारों की भूमिका बढ़ने वाली है.
क्योंकि इन राज्यों के शांतिप्रिय लोग दशकों से राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण से परेशान रहे हैं. देश की सबसे बड़ी अदालत ने बुधवार को केंद्र सरकार को यह आदेश दिया है कि वह नेताओं के खिलाफ चल रहे आपराधिक मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का गठन करे. इन मुकदमों का निर्णय एक साल के भीतर हो जाना चाहिए. विशेष अदालतें सिर्फ नेताओं के मुकदमे सुनें और जल्द उनका निबटारा करे. याद रहे कि केंद्र सरकार ने कहा है कि विशेष अदालतों के गठन की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है.
साथ ही, सुप्रीम कोर्ट इस पर भी विचार कर रहा है कि सजायाफ्ता नेताओं को चुनाव लड़ने से हमेशा के लिए वंचित कर दिया जाये या नहीं. अभी यह प्रावधान है कि सजा काट लेने के छह साल बाद वे दुबारा चुनाव लड़ सकते हैं. वैसे तो केंद्र सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि वह इस मामले पर भी गंभीरता से विचार कर रहा है कि सजायाफ्ता को हमेशा के लिए चुनाव लड़ने से रोक दिया जाये या नहीं.
याद रहे कि 2014 तक के आंकड़ों के अनुसार देश के 1581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे थे. संभव है कि गत तीन साल में इस संख्या में अंतर आया हो. सुप्रीम कोर्ट के रुख को देखते हुए यह साफ है कि विशेष अदालतों के गठन का काम जल्द ही पूरा होगा. पर सवाल सिर्फ विशेष अदालतों के गठन का ही नहीं है.
समस्या यह भी है कि प्रभावशाली आरोपित नेता गवाहों को धमका कर या खरीद कर मुकदमे को कमजोर कर देते हैं. साथ ही अनेक मामलों में वे आईओ यानी अन्वेषण पदाधिकारी को भी प्रभावित कर देते हैं. नतीजतन आपराधिक पृष्ठभूमि के अनेक दबंग नेता एक अपराध के मामले में छूट जाते हैं और दूसरे अपराध में लग जातेे हैं. जानकार सूत्र बताते हैं कि ऐसे मामलों के गवाहों को सुरक्षा देने की जिम्मेदारी शासन को उठानी ही पड़ेगी ताकि गवाह निर्भय होकर अपना काम कर सकें. साथ ही शासन सचमुच राजनीति केे अपराधीकरण से मुक्ति चाहता है तो वह बड़े मामलों के आईओ की निजी संपत्ति पर भी खास नजर रखे.
सामान्य विधि-व्यवस्था से है अपराधीकरण का सीधा संबंध : कई मामलों में राज्य की सामान्य विधि-व्यवस्था के ध्वस्त होने से भी विभिन्न प्रदेशों में जहां-तहां बाहुबली पैदा होते रहते हैं. कई बार वैसे बाहुबली चुनाव लड़ते हैं और जीत भी जाते हैं.
जनता के एक हिस्से को लगता है कि शासन तो हमारी मदद में आ नहीं रहा है, ऐसे में यही बाहुबली हमारा रक्षक है. बिहार के एक जिले में दशकों पहले शासन तंत्र जब खेतिहर मजदूरों को दंबग भूमिपतियों के जुल्म से नहीं बचा सका तो मजदूरों ने नक्सलियोें की शरण ले ली.
नक्सलियों ने जब भूमिपतियों की हत्याएं शुरू कीं तो भूमिपतियों ने एक बाहुबली अपना रक्षक बना लिया. इस बीच पुलिस और प्रशासन लगभग अनुपस्थित रहा. उधर दोनों पक्षों के बीच हिंसा-प्रति हिंसा के दौर चले.
नतीजतन हथियार वाले लोग आम लोगों में लोकप्रिय हो गये. दोनों पक्षों द्वारा समर्थित उम्मीदवार विधायिकाओं के सदस्य भी बनने लगे. यानी बाहुबली जनप्रतिनिधियों के खिलाफ जारी मुकदमों की त्वरित सुनवाई के साथ-साथ शासन को भी ग्रामीण इलाकों में भी कानून का शासन स्थापित करना होगा. अन्यथा राजनीति के अपराधीकरण के खात्मे का सपना अधूरा ही रहेगा.
सिर्फ निर्णय ही नहीं, कार्यान्वयन भी हो : नये रेल मंत्री पीयूष गोयल से लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं. उनके कदम भी अच्छाई की ओर बढ़ते लग रहे हैं. पर महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जो निर्णय वे कर रहे हैं, उनका कार्यान्वयन कितना हो रहा है.
हाल में एक खबर आयी थी कि करीब 50 हजार गैंगमैन बड़े रेल अफसरों की निजी सेवाओं में हैं. उन्हें उनके असली काम पर लगाने का आदेश रेल मंत्री ने दिया. पर क्या वह लागू हुआ? क्या बॉयोमेट्रिक हाजिरी के बिना इस आदेश को लागू किया जा सकेगा? उसी तरह रेल मंत्री का ताजा निर्णय रेलवे बोर्ड के 90 अधिकारियों को जोन-डिवीजन में भेजने का है. उम्मीद है कि रेल मंत्री अपने इस निर्णय को जरूर लागू करेंगे.
ऐसे भी चल रहा स्वच्छ भारत अभियान : उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले के एक गांव के लोग स्वच्छ भारत अभियान अपने ढंग से चला रहे हैं. खुले में शौच से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए वे खुरपी और कुदाल लेकर खेतों में जाते हैं.
उन्हें स्थानीय अफसरों ने बताया है कि वे शौच को मिट्टी के नीचे दबा दें. वे वैसा ही कर रहे हैं. स्वच्छ भारत अभियान का लक्ष्य एक खास अवधि में पूरा कर लेना है. उसके लिए जितने शौचालयों के निर्माण की जरूरत पड़ेगी, उतने पैसे शासन के पास नहीं है. इसलिए अफसरों ने ग्रामीणों को इस उपाय का सहारा लेने के लिए प्रेरित किया है. यह उपाय कोई नया नहीं है. आजादी की लड़ाई के दिनों में महात्मा गांधी ऐसे ही उपाय का सहारा लेने के लिए अपने अनुयायियों से कहते थे. उनमें से अनेक लोग उसका पालन भी करते थे.
एक भूली-बिसरी याद : पहली बार बिहार में नशाबंदी लागू करने वाले आबकारी मंत्री जगलाल चौधरी ने कहा था कि ‘ जब मैं अपने बजट को देखता हूं तो मालूम होता है कि इस साल हम पंद्रह करोड़ रुपये खर्च करेंगे.
इसमें हम पांच करोड़ रुपये तो गरीबों के पॉकेट से उन्हें शराब पिला कर लेंगे. °’ कट्टर गांधीवादी जगलाल चौधरी के नशाबंदी आदेश से सबसे अधिक नुकसान उनकी अपनी ही पासी जाति को हुआ था. पर इस बारे में वे कहते थे कि ‘ यह समाज कोई और रोजगार करे. गरीब-दलित यदि शराब का व्यापार और शराब पीना छोड़ देंगे तो उनकी प्रतिष्ठा भी समाज में बढ़ेगी और उनकी गरीबी भी कम होगी.’
पर उनके मंत्री नहीं रहने पर नशाबंदी का आदेश बिखर गया था. बाद के मंत्रिमंडल में जब उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया तो राजनीतिक हलकों में तब यह चर्चा थी कि शराबबंदी के पक्ष में उनके विशेष आग्रह के कारण ऐसा हुआ. इस आग्रह के कारण चौधरी जी पर कांग्रेस हाईकमान भी नाराज हो गया था.
नेहरू का पत्र पटेल के नाम : महात्मा गांधी के निधन के बाद जवाहर लाल नेहरू ने सरदार पटेल को लिखा था कि ‘ एक दूसरे के साथ हम 25 वर्षों से हैं. हमने कई आंधियों और संकटों का इकट्ठे होकर सामना किया है. मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि इस दौरान आपके प्रति मेरा प्यार और आदर बढ़ा है और इसे कम करने के लिए मेरे विचार में कुछ नहीं हो सकता.
हमारे मतभेदों ने भी हमारी सहमति और एक दूसरे के प्रति सम्मान को और बढ़ाया है. हमने सीखा है कि अलग-अलग सोच के बावजूद एक साथ काम किया जा सकता है. स्वाभाविक और दार्शनिक मतभेद के बावजूद हमें एक साथ काम करते रहना चाहिए जैसा कि हम इतने समय से करते आये हैं.
मुझे खुशी है कि बापू की भी यही राय थी. ’
और अंत में : आरक्षण एक ऐसा संवैधानिक प्रावधान है जिसे कोई हिला नहीं सकता. फिर भी चुनाव आते ही इसको लेकर दो पक्षों में नकली राजनीतिक कुश्ती होने लगती है. एक पक्ष इसे हिलाने की कोशिश करता है तो दूसरा पक्ष उसे हिलने से बचाने की. इस तरह दोनों पक्षों को अपने-अपने वोट बैंक का लाभ मिल जाता है. इन दिनों एक बार फिर वही कहानी दोहरायी जा रही है.