2018 लालू के लिए होगा खास, कयासों के बाद भी एकजुट रहेगी पार्टी, नहीं होगा वोटों का सफाया

पटना : राजद सुप्रीमो और बिहार के सबसे बड़े सियासी परिवार के मुखिया लालू यादव के चारा घोटाले मामले में जेल जाने के बाद विरोधियों की नजरें उनकी पार्टी पर टिकी हुई हैं. इतना ही नहीं जदयू के राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ नेता आरसीपी सिंह ने मीडिया से बातचीत में यहां तक कह दिया कि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 1, 2018 1:49 PM

पटना : राजद सुप्रीमो और बिहार के सबसे बड़े सियासी परिवार के मुखिया लालू यादव के चारा घोटाले मामले में जेल जाने के बाद विरोधियों की नजरें उनकी पार्टी पर टिकी हुई हैं. इतना ही नहीं जदयू के राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ नेता आरसीपी सिंह ने मीडिया से बातचीत में यहां तक कह दिया कि राजद के कई नेताओं की विचारधारा राजद से नहीं मिलती. इसलिए लालू के जेल जाने के बाद से ही ऐसे नेता छटपटा रहे हैं. उन्होंने कहा कि सवाल सिर्फ जदयू का नहीं है, भाजपा भी राजद नेताओं पर टकटकी लगाये बैठी है. वहीं राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा है कि बिहार की सियासत में हमेशा से केंद्र बिंदू बने रहे लालू यादव के जेल जाने के बाद उनकी पार्टी को इस तरह से टूटने का सपना देखने वाले नेताओं की संख्या ज्यादा हो गयी है. उधर, राजद के नेता लगातार यह कह रहे हैं कि लालू की पार्टी को तोड़ना नामुमकीन है. तेजस्वी यादव ने नये साल में मीडिया से कहा कि 2017 में बहुत कुछ सीखने को मिला और 2018 भी पार्टी के लिए बेहतर होगा.

जानकारों की मानें, तो एनडीए और जदयू के नेता लालू की सातवीं जेल यात्रा के बाद से कुछ ज्यादा ही उत्साहित हैं कि राजद की राजनीति बिहार से उखड़ जायेगी. लालू की राजनीतिक यात्रा को देखा जाये, तो इतना आसान नहीं है, लालू की पार्टी का टूटना और उनकी राजनीति का समाप्त होना. लालू चारा घोटाला में फंसने के बाद भी राजनीति में अपना पांव अंगद की तरह जमाये हुए हैं. 2010 के विधानसभा चुनाव को छोड़ दें, तो कभी भी लालू की जड़ उखड़ नहीं पायी है. सत्ता से बेदखल होने के बाद भी लालू ने अपनी राजनीतिक महता केंद्रीय फ्रंट पर भी बरकरार रखी है. लालू पहले जब भी जेल गये, वापस आने के बाद जेल यात्रा का फायदा ही उठा लिया. 1996 में चारा घोटाला उजागर होने के बाद संवैधानिक संकट आने पर मुख्यमंत्री का पद छोड़ा और राबड़ी के मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार को जनता के साथ पार्टी ने भी स्वीकार किया. 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में 124 सीटें जीतकर लालू ने दिखा दी कि पार्टी कमजोर नहीं है.

सदन में नीतीश कुमार जब शक्ति परीक्षण में फेल हुए, तो राजद-कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनायी. चारा घोटाले में फंसने के बाद यह पहला चुनाव था. वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद दत्त कहते हैं कि इसके बाद 2004 के लोकसभा चुनाव में राजद को 40 में 22 सीटों पर जीत मिली. केन्द्र की यूपीए सरकार में लालू प्रसाद की हैसियत बढी और वे रेल मंत्री बनाए गए. फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला और बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा. लेकिन तब भी 75 सीटें जीतकर राजद सबसे बड़े दल का स्थान बनाए रखा. नवंबर 2005 में हुए चुनाव में राजद को सत्ता से बाहर होने का झटका तो लगा लेकिन 54 सीटें जीतकर अहसास करा दिया कि उसकी जड़ें उखड़ी नहीं है.अलबत्ता 2010 के विधानसभा चुनाव में राजद की जड़ें जरूर उखड़ी जब जदयू-भाजपा की हवा ने उसे 22 सीटों पर सिमटा दिया. लेकिन इसे लालू-विरोध के बजाये 2005-2010 तक चली नीतीश की सुशासन की सरकार को मिला जनादेश बताया गया. फिर हुआ 2015 का विधान सभा चुनाव. केंद्र की मोदी-सरकार की चरम पर पहुंची लोकप्रियता के बावजूद महागठबंधन को भारी सफलता मिली. इस जीत में अगर नीतीश कुमार का साफ सुथरा चेहरा सामने था तो उनके पीछे लालू प्रसाद के जनाधार की ताकत थी.

राजनीतिक इतिहास के आईने में लालू की यात्रा को गहनता से देखें, तो लालू पर उनके वोटरों ने हमेशा विश्वास जताया है. लालू की यात्रा के साथ ही, उनके चाहने वाले न्यायपालिका पर सवाल उठा रहे हैं. राबड़ी देवी मीडिया से कह रही हैं कि लालू यादव ऊंची जाति के होते, तो उन पर इतने दिनों तक लंबी अवधि तक केस ही नहीं चलता. इतना ही नहीं राबड़ी ने कहा कि लालू यदि यादव नहीं होकर मिश्रा होते, तो वह जेल नहीं जाते. लालू-राबड़ी और राजद का जनता के बीच जाकर यह बताना कि लालू को जान बूझकर तंग किया जा रहा है. कहीं यह फार्मूला भी काम आ गया, तो लालू मजबूत बनकर जेल से बाहर आयेंगे और उसका असर 2019 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिलेगा. इधर, लगातार भाजपा से हार रही कांग्रेस बिहार को लेकर राजद से अलग हटने का रिस्क नहीं लेगी. इस तरह लालू को बिहार से उखाड़ देना या वोटों का सफाया कर देना आसान नहीं होगा.

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