बिहार : आरक्षण पर हलचल मचाने वाली रपट की केंद्र को है प्रतीक्षा

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक केंद्र सरकार ने मंडल आरक्षण कोटे के भीतर कोटे के लिए एक आयोग का गठन गत साल किया. संविधान के अनुच्छेद -340 के तहत इस आयोग का गठन हुआ है. कोटे में कोटा यानी 27 प्रतिशत मंडल आरक्षण का दो या तीन हिस्सों में विभाजन. आयोग की अध्यक्ष दिल्ली हाईकोर्ट की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 12, 2018 6:03 AM

सुरेंद्र किशोर

राजनीतिक िवश्लेषक

केंद्र सरकार ने मंडल आरक्षण कोटे के भीतर कोटे के लिए एक आयोग का गठन गत साल किया. संविधान के अनुच्छेद -340 के तहत इस आयोग का गठन हुआ है. कोटे में कोटा यानी 27 प्रतिशत मंडल आरक्षण का दो या तीन हिस्सों में विभाजन. आयोग की अध्यक्ष दिल्ली हाईकोर्ट की रिटायर जज जी. रोहिणी हैं. इस आयोग को तीन महीने में अपनी रपट देनी है.

वह अवधि पूरी होने ही वाली है. रपट किसी भी समय आ सकती है. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इस संबंध में पहले ही सिफारिश कर रखी है. आयोग के अनुसार 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन भागों में बांट दिया जाना चाहिए. उससे पिछड़े वर्ग की सभी जातियों को आरक्षण का लाभ समरूप ढंग से मिल सकेगा. अभी पिछड़ा वर्ग की कुछ खास मजबूत जातियां ही आरक्षण का अधिक लाभ उठा लेती हैं.

अत्यंत पिछड़ों को इसका समुचित लाभ नहीं मिलता. याद रहे कि अति पिछड़ों के लिए बिहार तथा कुछ अन्य राज्यों में अलग से आरक्षण का कोटा निर्धारित है. उससे आरक्षण का लाभ नीचे तक मिल पाता है. राज्यों का आरक्षण राज्य सरकारों की सेवाएं के लिए है. मंडल आरक्षण की सुविधा केंद्र सरकार की नौकरियों में मिलती है. मन मोहन सरकार के कार्यकाल में ही राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की संबंधित सिफारिश सरकार को मिल चुकी थी. पर उस सरकार ने उस सिफारिश को ठंडे बस्ते में डाल दिया. नरेंद्र मोदी सरकार ने उस रपट की समीक्षा के लिए आयोग गठित कर दिया.

जस्टिस रोहिणी आयोग कोटे में कोटा संबंधित सिफारिश की समीक्षा करेगा. जानकार सूत्रों के अनुसार रोहिणी आयोग इस बात की जांच करेगा कि विभिन्न जातियों व समुदायों के बीच आरक्षण के लाभ का समान वितरण हो पा रहा है या नहीं. आयोग ओबीसी में उप वर्गीकरण के लिए वैज्ञानिक तरीके से मानक, शर्त व तंत्र के बारे में विचार करेगा. साथ ही जातियों व समुदायों को विभिन्न उप वर्गों में शामिल करने का भी काम करेगा. ऐसे कदम राजनीति पर असर डालेंगे.

पिछले चुनावों में यह देखा गया है कि मजबूत पिछड़ा समुदाय जहां आम तौर पर कांग्रेस गठबंधन या उसके सहयोगी दलों के साथ रहा है, वहीं अति पिछड़ों का झुकाव राजग की तरफ रहा. यदि सचमुच 27 प्रतिशत आरक्षण को दो या तीन हिस्सों में बांट देने का काम हो गया तो उससे राजनीतिक हलचल भी शुरू हो सकती है. मजबूत पिछड़ों के नेता इसका विरोध कर सकते हैं. आरक्षण को लेकर कोई भी विवाद राजनीतिक गर्मी पैदा करता है.

बासी दही की खपत : पिछले साल संक्रांति के दस दिन बाद मैंने एक रिटेलर से डिब्बा बंद दही खरीदा. घर जाकर उस डिब्बे पर तारीख देखी. तारीख 12 दिन पहले की थी. अब बताइए, 12 दिन पहले का दही कैसा रहा होगा? फेंक देना पड़ा. पर रिटेलर ने मेरी असावधानी का फायदा उठा लिया. मुझे खरीदते समय ही तारीख देख लेनी चाहिए थी. पर कई उपभोक्ता तो और भी लापरवाह होते हैं. दरअसल उपभोक्ताओं का ऐसा शोषण संक्रांति के समय अधिक होता है.

कई रिटेलर थोक बिक्रेता के यहां से जरूरत से अधिक बड़ी मात्रा में दही उठा लेते हैं. सब तो संक्रांति के अवसर पर बिक नहीं पाता. बचा माल वे अगले कई दिनों तक खपाते रहते हैं. थोक बिक्रेताओं को चाहिए कि वे जन स्वास्थ्य का ध्यान रखें और बचे हुए माल को रिटेलर के यहां से वापस मंगवा लें.

कैसे काबू में आये अपराध! : उत्तर प्रदेश में

पिछले 10 महीनों में पुलिस की अपराधियों के साथ 921 मुठभेड़ें हो चुकी हैं. उनमें 33 अपराधी मारे गये हैं. तीन पुलिकर्मी भी मरे और 210 घायल हुए. इतने कम समय में इतनी संख्या में मुठभेड़ों पर

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सक्रिय हो गया है. दरअसल ऐसे मामलों में लगभग पूरे देश में पुलिस के सामने मजबूरी रहती है. एक तरह के शासक कहते हैं कि पुलिस नरमी बरते. जब दूसरे शासक आतेे हैं तो वे कड़ाई बरतते हैंं. इस बीच अपराधी निडर हो जाते हैं.

सिर्फ गिरफ्तारी से जब अपराध नहीं रुकता तो मुठभेड़ों की नौबत आती है. मुठभेड़ों के बाद कई बार मानवाधिकार आयोग पुलिसकर्मियों की परेशानी बढ़ा देते हैं. इस देश के हुक्मरानों और नीतियां बनाने वालों को इस समस्या पर खास तौर पर विचार करना चाहिए. इस बात पर कि किस तरह अपराध भी कम हो और ऐसा करते समय पुलिसकर्मियों को भी कोई परेशानी न हो.

एक भूली-बिसरी याद : सन् 1983 की बात है. यह कहानी पशु पालन घोटाले की ही है. तब वाईबी प्रसाद बिहार सरकार के सहाय्य और पुनर्वास विभाग में संयुक्त सचिव थे. पशुपालन विभाग का एक मामला परीक्षण के लिए उनके सामने आया था. उस मामले में पशुपालन विभाग के क्षेत्रीय अपर निदेशक डाॅ पी लकड़ा निलम्बित हुए थे.

अपने एक संस्मरणात्मक लेख में वाईबी प्रसाद ने बाद में लिखा था कि ‘पी लकड़ा ने कहा कि पटना सचिवालय में तैनात कुछ कर्मचारी पशुपालन विभाग के 15 लाख रुपये के आबंटन आदेश लेकर खुद रांची आये. उनके साथ पशु दवाओं के तीन सप्लायर भी थे. ऊपरी आदेश के कारण विषय-वस्तु की छानबीन नहीं की जा सकी. उसी दिन बिल कोषागार को भेजा गया.

और संभवतः दूसरे ही दिन पूरी निकासी कर ली गयी.’ अब पशुपालन घोटाले से संबंधित एक दूसरी कहानी पढ़िये जो नब्बे के दशक की है. 17 दिसंबर, 1993 को बिहार सरकार के कोषागार निदेशक एसएस शर्मा ने अपने पत्र में लिखा कि पशुपालन विभाग के पैसों की निकासी पर रोक हटा ली जा रही है.

याद रहे कि डोरंडा कोषागार के अधिकारी ने पशुपालन विभाग के बकाया बिलों का भुगतान रोक दिया था. उसे लगा था कि बजट प्रावधानोंं से काफी अधिक पैसों की निकासी हो रही है. बिल भी पहली नजर में जाली लगे. निकासी रुक जाने के बाद बिहार सरकार के वित्त विभाग के संयुक्त सचिव एसएन माथुर ने कोषागार पदाधिकारी को पत्र लिखा. पत्र में आदेश दिया गया कि निकासी पर से रोक हटा ली जाये.

यह पत्र घोटालेबाजों के फायदे मेें रहा. बेशुमार निकासी का एक नमूना यहां पेश है. वित्तीय वर्ष 1994-95 में पशुपालन विभाग का बजट मात्र 65 करोड़ 47 लाख रुपये का था. पर उस कालावधि में मुख्यतः जाली बिलों के आधार पर राज्य के सरकारी कोषागारों से 237 करोड़ 85 लाख रुपये निकाल लिए गये. इसी तरह के अन्य अनेक सनसनी खेज प्रकरणों से सीबीआई और अदालतों का सामना हुआ था. अब ऐसे में कोई अदालत कैसा निर्णय करती? लोकहित याचिका पर सीबीआई की जांच का आदेश देते समय 1996 के मार्च में पटना हाईकोर्ट ने कहा था कि ‘उच्चस्तरीय साजिश के बिना ऐसा घोटाला हो ही नहीं सकता था.’

और अंत में : जब लालू प्रसाद सत्ता में नहीं आये थे, तब भी पशुपालन माफिया बिहार में सक्रिय थे. हालांकि वे तब उतने अधिक ताकतवर नहीं थे जितने 1990 के बाद हुए. हालांकि 1990 से बहुत पहले की एक पुरानी घटना भी कम चौंकाने वाली नहीं थी. एक बार केबी सक्सेना पशुपालन विभाग के सचिव बना दिये गये थे. कर्तव्यनिष्ठ आईएएस अफसर सक्सेना ने पशुपालन माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी. नतीजतन तीन महीने के भीतर ही सक्सेना साहब उस पद से हटा दिये गये.

बाद में सक्सेना ने एक अन्य आईएएस अफसर आभाष चटर्जी से कहा कि मैं जानता था कि वे लोग ‘यानी पशुपालन माफिया’ बहुत ताकतवर हैं. पर यह पता नहीं था कि पूरी सरकार उनकी जेब में है. अवकाश ग्रहण करने के बाद आभाष चटर्जी ने एक अखबार में लेख लिख कर यह रहस्योद्घाटन किया था.

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