बिहार : स्कूल स्तर से ही पर्यावरण विज्ञान के शिक्षण की जरूरत बढ़ी
II सुरेंद्र किशोर II राजनीतिक िवश्लेषक पिछले कुछ वर्षों में हरियाली क्षेत्र का विस्तार करके बिहार सरकार ने सराहनीय काम किया है़ यह अत्यंत जरूरी काम है़ इससे पर्यावरण संतुलन कायम करने और रखने में सुविधा होगी़ पर रोज-रोज बिगड़ते पर्यावरण संतुलन के बीच स्कूली स्तर से ही पर्यावरण विज्ञान की अनिवार्य पढ़ाई आज और […]
II सुरेंद्र किशोर II
राजनीतिक िवश्लेषक
पिछले कुछ वर्षों में हरियाली क्षेत्र का विस्तार करके बिहार सरकार ने सराहनीय काम किया है़ यह अत्यंत जरूरी काम है़ इससे पर्यावरण संतुलन कायम करने और रखने में सुविधा होगी़ पर रोज-रोज बिगड़ते पर्यावरण संतुलन के बीच स्कूली स्तर से ही पर्यावरण विज्ञान की अनिवार्य पढ़ाई आज और भी जरूरी मानी जा रही है़ बचपन से ही जागरूक बनाया जाये तो आगे चल कर नागरिक पर्यावरण की रक्षा के प्रति अधिक सचेत रहेंगे़ इसी को ध्यान में रखते हुए एमसी मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में लोक हित याचिका दायर की थी़
उस पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 22 नवंबर, 1991 को केंद्र और राज्य सरकारों को निदेश दिये थे़ निर्देश यह था कि वे प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक पर्यावरण विज्ञान की पढ़ाई ‘पृथक और अनिवार्य विषय’ के रूप में कराएं. पर सरकारों ने इस जरूरी विषय को भूगोल के साथ मिला दिया़ नतीजतन उसका वांछित परिणाम सामने नहीं आ रहा है़
अब जबकि देश के अधिकतर नगर और महानगर बिगड़ते पर्यावरण के कारण रहने लायक नहीं रह गये है. सरकारों को इस मसले पर एक बार फिर विचार कर लेना चाहिए. कई साल पहले चर्चित खगोल वैज्ञानिक स्टीफन हाॅकिंग ने कहा था कि ‘ यदि मनुष्य को अपने अस्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे दूसरे ग्रहों पर भी अपना बसेरा बना लेना चाहिए.’ उन्होंने इसके जो तीन कारण बताये थे, उनमें एक कारण यह भी है कि पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है. जाहिर है कि तापमान बढ़ने का एक बड़ा कारण पर्यावरण संतुलन को लेकर अधिकतर लोगों की लापरवाही भी है. विभिन्न देशों की सरकारें भी या तो लापरवाह रही हैं या कम सावधान हैं. भारत जैसे देश में आम लोगों में लापरवाही का एक बड़ा कारण जागरूकता का भारी अभाव है. ऐसी स्थिति में यदि जागरूकता स्कूली स्तर से ही ठीक ढंग से बढ़ायी जाये तो आगे चल कर उसके बेहतर रिजल्ट आ सकते हैं.
पर अब तक सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के 1991 के निर्देशों को नजरअंदाज ही किया है. या फिर अधूरे मन से उसका पालन किया है. यदि सरकार अपने प्रयास से हरित क्षेत्र का विस्तार कर सकती है तो पर्यावरण संतुलन के प्रति नयी पीढ़ी को जागरूक करने का कोई बेहतर उपाय भी कर ही सकती है. सन 2000 में राज्य के विभाजन के बाद शेष बिहार में करीब आठ प्रतिशत वन क्षेत्र रह गया था. अब यह बढ़कर 15 प्रतिशत हो गया है. राज्य सरकार की कोशिश है कि इसे अगले दो साल में 17 प्रतिशत कर दिया जाये.
मेडिकल उपकरणों की खरीद : खबर है कि इस देश में चीन निर्मित मेडिकल उपकरणों की उपलब्धि के बाद अब सरकारी खरीद के काम में लगे अफसरों व आपूर्तिकर्ताओं की चांदी ही चांदी है. कुछ जानकार लोग इस बारे में भीतरी सूचनाएं संबंधित लोगों को देते रहते हैं.
पर उसका कोई असर नहीं पड़ता. कल्पना कीजिए कि सरकार को एक करोड़ रुपये की लागत से किसी विश्वसनीय कंपनी के मेडिकल उपकरण की खरीद करनी है. आपूर्तिकर्ता वही उपकरण 30 लाख रुपये में चीनी कंपनी से खरीद लेगा. उस उपकरण पर उस विश्वसनीय कंपनी की मुहर लगा देगा. ऐसा उपाय कर देगा कि मशीन ऊपर से देखने पर उसी नामी विश्वसनीय कंपनी का ही दिखे. 70 लाख रुपये कई लोगों के बीच बंट जायेंगे. क्या यह खबर सही है? क्या ऐसी कोई व्यवस्था है कि खरीदी गयी नयी मशीन के भीतरी हिस्से की प्रामाणिक जांच होती है? क्या ऐसे महंगे उपकरणों की थर्ड पार्टी जांच की व्यवस्था नहीं हो सकती?
एक भूली-बिसरी याद : नरेंद्र मोदी की सरकार के गठन के बाद अब तक वोहरा कमेटी की रपट पर कोई चर्चा नहीं सुनी गयी है. यानी लगता है कि रपट सन 1993 से ही केंद्र सरकार की आलमारी में धूल खा रही है. क्या मोदी सरकार ने उसे देखा है? उस रपट में कतिपय सरकारी अफसरों, नेताओं और देश के माफिया गिरोहों के बीच के अपवित्र गठबंधन का जिक्र है. उस गठबंधन को तोड़ने के उपाय भी रपट में सुझाये गये हैं. समिति की सिफारिश आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय लाॅबियों, तस्कर गिरोहों, माफिया तत्वों के साथ कुछ प्रभावशाली नेताओं और अफसरों की बनी आपसी सांठ-गांठ से संबंधित है. काले धन, अपराध, भ्रष्टाचार और देशद्रोह के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए इस रपट से खास रोशनी मिलती है.
पांच दिसंबर, 1993 को तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एनएन वोहरा द्वारा सरकार को पेश रपट में कहा गया है कि ‘ इस देश में अपराधी गिरोहों, हथियारबंद सेनाओं, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले माफिया गिरोहों, तस्कर गिरोहों, आर्थिक क्षेत्रों में सक्रिय लाॅबियों का तेजी से प्रसार हुआ है. इन लोगों ने विगत कुछ वर्षों के दौरान स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों, सरकारी पदों पर आसीन लोगों, राज नेताओं, मीडिया से जुड़े व्यक्तियों तथा गैर सरकारी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के साथ व्यापक संपर्क विकसित किये हैं.
इनमें से कुछ सिंडिकेटों की विदेशी आसूचना एजेंसियों के साथ-साथ अन्य अंतरराष्ट्रीय संबंध भी हैं.’ वोहरा रपट में यह भी कहा गया है कि इस देश के कुछ बड़े प्रदेशों में इन गिरोहों को स्थानीय स्तर पर राजनीतिक दलों के नेताओं और सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों का संरक्षण हासिल है. समिति ने यह भी कह दिया था कि ‘तस्करों के बड़े-बड़े सिंडिकेट देश के भीतर छा गये हैं और उन्होंने हवाला लेन-देनों, काला धन के परिसंचरण सहित विभिन्न आर्थिक कार्यकलापों को प्रदूषित कर दिया है. यह भी कहा गया था कि ‘कुछ माफिया तत्व नारकोटिक्स, ड्रग्स और हथियारों की तस्करी में संलिप्त हैं.
चुनाव लड़ने जैसे कार्यों में खर्च की जाने वाली राशि के मद्देनजर राजनेता भी इन तत्वों के चंगुल में आ गये हैं. वोहरा समिति की बैठक में आईबी के निदेशक ने साफ-साफ कहा था कि ‘माफिया तंत्र ने वास्तव में एक समानांतर सरकार चला कर राज्यतंत्र को एक विसंगति में धकेल दिया है.’ क्या मोदी सरकार ने इस बात का आकलन किया है कि इन मामलों में 1993 और 2018 में कितना फर्क आया है? उस रपट पर अब भी कार्रवाई करने की जरूरत है भी या नहीं?
और अंत में : पठन-पाठन का माहौल बनाने के लिए भाजपा ने अपने हर राज्य शाखा कार्यालय में अच्छी लाइब्रेरी स्थापित करने का निर्णय किया है. पार्टी कार्यकर्ताओं को बौद्धिक तर्कों से लैस करने के लिए अब तक छह राज्यों में यह काम पूरा हो चुका है. अभी बिहार बाकी है. केंद्रीय भाजपा आॅफिस में पुस्तकालय की स्थापना तो 2016 में ही हो चुकी थी. अन्य दल चाहें तो भाजपा के इस कदम से कुछ सबक ले सकते हैं.