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बिहार : ब्रेक के सहारे लैंडिंग से जोखिम में जान, टायर प्रेशर घटा तो यहां भी हो सकता है शम्साबाद जैसा हादसा

पटना : पटना एयरपोर्ट का रनवे देश के सबसे छोटे रनवे में से एक है. यहां रनवे की लंबाई केवल 2072 मीटर है और उसका भी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं होता है. पूर्व की तरफ से फनल एरिया में सचिवालय टावर के आने से 1938 मीटर और पश्चिम की तरफ से रेलवे लाइन के आने […]

पटना : पटना एयरपोर्ट का रनवे देश के सबसे छोटे रनवे में से एक है. यहां रनवे की लंबाई केवल 2072 मीटर है और उसका भी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं होता है.
पूर्व की तरफ से फनल एरिया में सचिवालय टावर के आने से 1938 मीटर और पश्चिम की तरफ से रेलवे लाइन के आने की वजह से केवल 1677 मीटर इस्तेमाल के लायक रह जाती है, जबकि इस पर उतरने वाले एयरबस 320 और बोईग 737 जैसे विमानों के लिए कम से कम 2250 मीटर की हवाई पट्टी चाहिए. ऐसे में पायलट को लैंडिंग के दौरान विमान को रोकने के लिए ब्रेक का इस्तेमाल करना पड़ता है.
इसकी वजह से विमान के चक्के रनवे से अधिक रगड़ाते हैं. टायरों पर दबाव बढ़ जाता है और यात्रियों को झटका लगता हैै. ऐसे में यहां आने जाने वाले विमानों को टायर के एयर प्रेशर पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. नहीं तो यहां भी लैंडिंग के दौरान टायर फट सकते हैं
व्हील पेयर का सुरक्षा के िलए होता है इस्तेमाल
सुरक्षा की दृष्टि से एक बेहद बड़े चक्के की बजाय दो छोटे चक्के का एक साथ विमानों में इस्तेमाल किया जाता है. इसकी वजह से एक चक्का के फटने की स्थिति में दूसरा चक्का विमान को सपोर्ट देकर दुर्घटना रोकने का प्रयास करता है और आपातकालीन स्थिति से निबटने में मददगार होता है. इसको ध्यान में रखते हुए 18 और 22 चक्के वाले बेहद बड़े विमानों तक में जोड़ों में चक्कों का इस्तेमाल किया जाता है.
दोनों डैनों के नीचे भी दो दो चक्कों का एक (18 चक्का वाले विमानों में)और दो (22 चक्का वाले विमानों में)समूह इस्तेमाल किया जाता है. नोज व्हील के रूप में भी हर विमान में दो चक्कों का एक साथ इस्तेमाल किया जाता है. इसके बावजूद विमान का लोड अधिक होने पर एक चक्का के फट जाने की स्थिति में पेयर के दूसरे चक्के पर अधिक जोर पड़ता है, जिसकी वजह से कई बार वह भी फट जाता है और दुर्घटना को रोकना असंभव हो जाता है.
लैंडिंग के समय ब्रेक लगाने से रनवे पर रगड़ाते हैं पहिए
आने-जाने वाले विमानों को अधिक सतर्कता की जरूरत
l 6 से 22 तक होते विमानों में चक्के : विमान के आकार व वजन के अनुरूप चक्कों के आकार व संख्या में भी अंतर होता है. छोटे व मझोले यात्री विमानों में छह चक्के होते हैं जबकि बड़े यात्री विमानों में 22 तक चक्कों का इस्तेमाल शुरू हो गया है. कुछ प्रमुख विमानों में चक्कों की संख्या इस प्रकार है.
एयरक्राफ्ट चक्कों की संख्या
एयरबस 380 22
बोईंग 777 14
बोईंग 747 18
बोईंग 737 6
एयरबस ए 320 6
एटीआर 72 6
कम प्रेशर बनता है टायर फटने की वजह
विमान के टायर में 200 पीएसआई का एयर प्रेशर होना चाहिए. बाइक के टायर-टयूब में भरे जाने वाले एयर प्रेशर की तुलना में यह छह गुणा अधिक होता है. इतना उच्च एयरप्रेशर रख्रने की वजह विमान का अत्यधिक वजन है.
एटीआर 72 जैसे छोटे विमानों का वजह 23 टन होता है. एयरबस ए320 और बोईंग 737 जैसे विमानों का वजन ईंधन के साथ 70 टन होता है. इतना अधिक वजन चक्का तब ही सह सकता है जब उसके भीतर का एयर प्रेशर अपेक्षित सीमा तक हो. थोड़ा भी कम एयर प्रेशर रहने पर विमान के अत्यधिक वजन के दबाव से चक्का दबने लगता है और दुर्घटना होती है.
शम्साबाद एयरपोर्ट पर यह घटना: विदित हो कि गुरुवार को शम्साबाद एयरपोर्ट पर तिरूपति से आ रहे इंडिगो एयरलाइंस के एक एटीआर विमान का एक टायर लैंडिंग के समय फट गया और रनवे से रगड़ाने की वजह से चक्के से चिंगारी निकलने लगी.
यह तो संयोग था कि अग्निशमन दस्ते, एयरपोर्ट कर्मियों और क्रू मेंबर्स के प्रयासों से दुर्घटना भयानक रूप नहीं ले पाई और विमान में सवार सभी 77 लोगों की जान बचा ली गई. इसके पहले 11 जुलाई 1991 को जेद्दा के किंग अब्दुल अजीज एयरपोर्ट पर नाइजीरिया के हज यात्रियों को लेकर आया कनाडा का एक चार्टड विमान दुर्धटनाग्रस्त हो गया था, जिससे विमान के सभी 271 लोग मरे थे.
सामान्य हवा की जगह भरा जाता है नाइट्रोजन
विमानों के टायर में सामान्य हवा की बजाय नाइट्रोजन गैस भरा जाता है. इसकी वजह नाइट्रोजन गैस का विशिष्ट प्रकृति है. सामान्य हवा में ऑक्सीजन और जल वाष्प मिले होने की वजह से अधिक दबाव व तापमान पर इसके विस्फोट की आशंका होती है, लेकिन रासायनिक प्रतिक्रिया में अक्रिय होने की वजह से नाइट्रोजन के साथ ऐसी आशंका नहीं होती है.
नाइट्रोजन की एक अन्य खूबी इसका अत्यधिक निम्न द्रवनांक है. इसकी वजह से -173 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान रहने पर यह द्रव्य में तब्दील नहीं होता है. ऐसे प्रदेशों में जहां बहुत ठंड पड़ती है और रनवे पर बर्फ की चादर बिछ जाती है, वहां भी इस निम्न द्रवनांक की वजह से नाइट्रोजन गैस के स्वरूप में परिवर्तन नहीं आता है. उसकी वजह से एयरप्रेशर के कम होने की आशंका होती है.

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