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बिहार : आरक्षण की जगह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से होगी सबकी भलाई

II सुरेंद्र किशोर II राजनीतिक विश्लेषक जिन लोगों ने आरक्षण के विरोध में 10 अप्रैल को ‘भारत बंद’ का आह्वान किया था, उन्हें इसके बदले भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देश में कोई बड़ा आंदोलन करना चाहिए. उनमें आंदोलन की क्षमता तो है ही. मेरी समझ से उसका बेहतर इस्तेमाल हो सकता है. क्योंकि 10 अप्रैल […]

II सुरेंद्र किशोर II
राजनीतिक विश्लेषक
जिन लोगों ने आरक्षण के विरोध में 10 अप्रैल को ‘भारत बंद’ का आह्वान किया था, उन्हें इसके बदले भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देश में कोई बड़ा आंदोलन करना चाहिए. उनमें आंदोलन की क्षमता तो है ही. मेरी समझ से उसका बेहतर इस्तेमाल हो सकता है. क्योंकि 10 अप्रैल के भारत बंद से ही यह लग गया कि वे कोई बड़ा आंदोलन भी चला सकते हैं. आरक्षण के विरोध में कोई आंदोलन कई कारणों से इस देश में प्रति-उत्पादक ही साबित होगा.
1990 में ऐसा देखा गया. हालांकि, 10 अप्रैल को भारत बंद आयोजित करने वाले लोगों की मूल समस्याओं पर सरकारों को गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा. एक बड़ी आबादी को लंबे समय तक असंतुष्ट नहीं रखा जा सकता. उनकी मुख्य समस्या बेरोजगारी है.
सरकार साधनों के अभाव में रोजगार के अवसर नहीं बढ़ा पा रही है. अवसर बढ़ भी रहे हैं तो जरूरतों के अनुपात में बहुत कम हैं. साधनों की कमी के कारण न तो खाली सरकारी पद भरे जा रहे हैं और न ही जरूरत रहने पर भी नये पद सृजित हो रहे हैं.
आबादी व जरूरतों के अनुसार हर जगह पदों की भारी कमी है. अधिक पद यानी रोजगार के अधिक अवसर. सबके लिए अवसर. आरक्षित व अनारक्षित सभी के लिए. सरकार के पास साधन इसलिए भी कम हैं कि इस देश में बड़े पैमाने पर टैक्स चोरी हो रही है. ऐसा भारी भ्रष्टाचार के कारण हो रहा है.
नये-नये छोटे-बड़े उद्योगों की स्थापना की राह में भी सरकारी लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार बाधक हैं. अपवादों को छोड़ दें तो हर स्तर पर सरकारी सेवक उद्यमियों से पूछते हैं कि इसमें मुझे क्या मिलेगा? यदि नहीं तो फिर मेरा क्या, उद्योग लगे या न लगे! ऐसे लोगों की दवाई कोई बड़ा जनांदोलन ही कर सकता है. बड़े पैमाने पर स्टिंग आॅपरेशन की भी जरूरत है.
सरकार की ताकत भ्रष्टाचारियों की ताकत के सामने कम पड़ रही है. यदि भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ा जनांदोलन देश में शुरू होगा तो सरकार को भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए अतिरिक्त ताकत मिलेगी. यदि फिर भी सरकारों ने कड़े कदम नहीं उठाये तो सरकारें बदल जायेंगी. 10 अप्रैल को बंद कराने वाले आमतौर पर कृषक परिवारों से आते हैं. देश कृषि संकट से जूझ रहा है. खेती में मुनाफा कम, घाटा ही अधिक है.
किसानों के लिए खेती से अपना जरूरी खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा है. किसान अपनी शिक्षित बेरोजगार संतानों का क्या करें जो खेती भी नहीं कर सकते? सरकारों को चाहिए कि वेे खेती को कृषि आधारित उद्योगों से जोड़े. मनरेगा को किसानों से जोड़े जैसी सलाह तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने मनमोहन सरकार के कार्यकाल में दी थी. यानी मनरेगा के मजदूरों को आधी मजदूरी सरकार और आधी किसान दें. इससे खेती पर से लागत खर्च का बोझ घटेगा.
आरक्षण विरोधी 1990 से सबक लें : 1990 में जब केंद्र की वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफरारिशों के आधार पर केंद्रीय सेवाओं में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया तो पूरे देश में कुछ लोगों द्वारा भारी विरोध किया गया. बिहार में विरोध व प्रति-विरोध अलग ढंग का था. सघन व तीखा था. तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने आरक्षण विरोधियों का अपने दल व सरकारी साधनों के बल पर अपनी भदेस शैली में जमकर विरोध किया. समाज में घर्षण हुआ.
इसमें लालू को पिछड़ों को जगाने और उसका श्रेय लेने का सुनहरा मौका मिल गया. तब कुछ विवेकशील लोग आरक्षण विरोधियों से अपील कर रहे थे कि विरोध छोड़ो. गज नहीं फाड़ेंगे तो थान हारना पड़ेगा.
वे नहीं माने. नतीजतन लालू प्रसाद ने सिर्फ आरक्षण विरोधियों के विरोध की अपनी एक मात्र राजनीतिक पूंजी के बल पर कारण 15 साल तक राज किया. उस ‘राज’ में सबसे अधिक नुकसान सवर्णों का ही हुआ. बाद में कुछ आरक्षण विरोधियों ने यह महसूस किया था कि उनका विरोध गलत था. वह प्रति-उत्पादक साबित हुआ. पर आरक्षण विरोधियों की आज की नयी पीढ़ी को लगता है कि उस इतिहास से अनभिज्ञ है. इसलिए इतिहास को दोहराया जा रहा है.
यदि आरक्षण विरोध अब भी बंद नहीं हुआ तो एक और लालू के पैदा होने का आधार तैयार हो जायेगा. पर भ्रष्टाचार विरोध के आंदोलन में सबको लाभ मिलेगा. हालांकि, उसके कारण ज्यादा लाभ सवर्णों को ही होगा. क्योंकि सरकारी सुविधाओं का फायदा उठाने की क्षमता, प्रतिभा, बुद्धि, कौशल और योग्यता उनमें अपेक्षाकृत अधिक है. याद रहे कि भ्रष्टाचार कम होने से सरकारें धनवान-साधनवान होंगी. सरकारी पैसे से विकास का लाभ गांवों तक पहुंचेगा.
चुनाव पूर्व जातीय आंदोलन : कांग्रेस अनुसूचित जाति संभाग के अध्यक्ष नितिन राउत ने कहा है कि दलितों का गुस्सा अगले चुनाव के बाद राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनायेगा. यानी कुछ नेताओं ने गुस्सा पैदा होने की स्थिति इसलिए तैयार की ताकि इसके बल पर सत्ता बदली जा सके.
पर ऐसी जातीय भावनाएं उभार कर कोई सत्ता हासिल करके देश का कितना भला कर पायेगा? इससे पहले भी जातीय भावनाएं उभार कर सत्ता हासिल करके लोगों ने किसका भला किया?
सब जानते हैं कि किसका भला हुआ. आमतौर पर अपना और अपने परिवार और एक हद तक अपनी जाति की ही तो! क्या इससे देश बनेगा? न अब तक बना है और न आगे बनेगा. ऐसे आंदोलनों से खुद उस आंदोलन के मौजूदा नेताओं को कुछ लाभ भले हो जाये, पर उनकी ही आगे वाली पीढ़ियां उन्हें कोसेंगी.
एक भूली-बिसरी याद :1990 में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने केंद्रीय सेवाओं में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया. तब के आरक्षण विरोधियों में मशहूर पत्रकार अरुण शौरी प्रमुख थे.
उन्होंने मंडल आरक्षण के विरोध में अनेक लेख लिखे और जगह-जगह जाकर भाषण दिये. उनके एक लेख का एक अंश मौजूद स्थिति में मौजूं है. उन्होंने लिखा था कि ‘……मेधावी नौजवान अब सरकारी सेवा से दूर रहेगा. वह ऐसे पेशों मेें जायेगा जो इस तरह के विनिमयों से भद्दे और बेतुके नहीं हुए हैं.
मेधावी नौजवान के लिए तो यह उतनी बुरी बात भी नहीं होगी. जिस पेशे को वह त्याग रहा होगा–सरकारी सेवा-अब मुश्किल से ही ऐसा पेशा है जो वह बीस साल पहले हुआ करता था. उनमें न तो जीवंतता है और न ही तरक्की की संभावनाएं और न ही वह सचमुच ऐसे अवसर देता है जो महान जिम्मेदारियां निभाने के लिए सरकारी पद कभी देते थे. जिन पेशों की तलाश में वह निकलेगा, वे विकासमान पेशे हैं, उनमें अभिरुचियों और कौशल के व्यापकतम विन्यास के अवसर हैं.
वे ऐसे पेशे हैं, जिनमें पहलकदमी और युक्ति कौशल को तुरंत-फुरंत मान्यता और पुरस्कार मिल सकता है.’ लेकिन राज्य के लिए यह कोई तसल्ली नहीं है. सर्वाधिक प्रतिभावानों के राजकाज के तंत्र से दूर रहने का नतीजा यही हो सकता है कि वह और भी कमजोर होगा.’
और अंत में : हर सांसद को हर साल एक गांव को गोद लेकर उसका विकास करना था. प्रधानमंत्री ने इस योजना में खास रुचि ली. उसके लिए अलग से पैसे का प्रावधान नहीं किया गया. देश में केंद्र व राज्य सरकारों की विकास व कल्याण की सैकड़ों योजनाएं चल रही हैं.
उन्हीं योजनाओं के पैसों से उन आदर्श गांवों का विकास करना था. पर, वे पैसे भी उन आदर्श गावों में नहीं लगे. इसलिए शायद ही इस विधि से शायद कुछ ही गांवों का विकास हो सका. क्योंकि सरकारी-गैर सरकारी बिचौलिये दशकों से उन पैसों में से अधिकांश पैसे खा जा रहे हैं.
मौजूदा सरकार व सांसदों से भी अधिक ताकतवर वे लुटेरे साबित हुए हैं. उन्होंने अघोषित रूप से कह दिया कि हम उन पैसों को कहीं और नहीं लगायेंगे. वे सिर्फ हमारी पाॅकेटों की शोभा बढ़ायेंगे. अब बताइए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी महा जनआंदोलन की आज कितनी अधिक जरूरत है? ऐसे आंदोलनों से किसी ईमानदार सरकार को बल ही मिलता है.

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